इस्लाम – धर्म के नाम पर छल?

भूमिका – सत्य का धर्म या रणनीतिक असत्य का ढांचा?

जब किसी धर्म को “सत्य का मार्ग” कहा जाता है, तो स्वाभाविक है कि सत्यनिष्ठा उसकी सबसे प्रमुख नैतिक नींव होनी चाहिए।
परंतु जब हम इस्लाम के सिद्धांतों, इतिहास और उसकी व्यवहारिक शिक्षाओं को गहराई से देखते हैं, तो एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है:

“क्या इस्लाम झूठ बोलने की अनुमति देता है? अगर हाँ, तो किन परिस्थितियों में और क्यों?”


किताबों में करार, अमल में मक्कारी?–

1. तक़़य्या (تقية) – धार्मिक सुरक्षा या रणनीतिक छल?

परिभाषा: “तक़़य्या” का अर्थ है अपनी आस्था को छिपाना या झूठ बोलना, जब जीवन संकट में हो या इस्लाम के हित में लाभ हो।

स्रोत:
कुरान 3:28
لَا يَتَّخِذِ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ٱلۡكَٰفِرِينَ أَوۡلِيَآءَ مِن دُونِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ… إِلَّآ أَن تَتَّقُواْ مِنۡهُمۡ تُقَىٰةٗ

Lā yattakhidhi-l-mu’minūna-l-kāfirīna awliyā’a min dūni-l-mu’minīn… illā an tattaqū min’hum tuqātan

इस आयत में एक शब्द आता है “तुकातन” जिससे बनता है तक़िय्या।
“ईमान वाले काफ़िरों को अपना मित्र न बनाएँ… सिवाय इसके कि तुम उनसे बचाव के लिए तक़़य्या करो।”

तफ़सीर अल-जलालैन:
“यदि मुसलमान गैर-मुसलमानों की सत्ता के अधीन हों, तो वे ऊपर-ऊपर से मित्रता दिखा सकते हैं, लेकिन भीतर से शत्रुता ही रखनी होगी।”

शिया हदीस – अल-काफी, वॉल्यूम 2, पृ. 217:
“तक़़य्या मेरा धर्म है और मेरे पूर्वजों का भी धर्म है।”

आलोचना:
यदि किसी धर्म को अपनी रक्षा के लिए झूठ की रणनीति चाहिए, तो वह केवल धर्म नहीं बल्कि एक राजनीतिक प्रोजेक्ट भी है। आज तक़़य्या, राजनीतिक इस्लाम का सबसे अहम हथियार बन चुका है। (तक़़य्या)


2. कितमाँ (كتمان) — “आधा सच” = पूरा झूठ

परिभाषा: “कितमान” का अर्थ है सत्य का केवल एक हिस्सा बताना, परंतु इस प्रकार कि वास्तविक अर्थ ही बदल जाए।

उदाहरण:
मुसलमान अक़्सर कुरान 5:32 उद्धृत करते हैं –
“एक इंसान का कत्ल, पूरी इंसानियत का कत्ल है”

लेकिन वे दो अहम तथ्य छिपा देते हैं:

  1. यह आयत मुसलमानों के लिए नहीं, बल्कि यहूदियों (बनी-इस्राईल) के लिए प्रकट हुई थी।
  2. अगली ही आयत (5:33) में स्पष्ट आदेश है:

إِنَّمَا جَزَٰٓؤُاْ ٱلَّذِينَ يُحَارِبُونَ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ… أَن يُقَتَّلُوٓاْ أَوۡ يُصَلَّبُوٓاْ أَوۡ تُقَطَّعَ أَيۡدِيهِمۡ وَأَرۡجُلُهُم مِّنۡ خِلَٰفٍ
“जो लोग अल्लाह और उसके रसूल के ख़िलाफ़ लड़ते हैं – उनकी सज़ा है: हत्या, सूली, या उनके हाथ-पैर विपरीत दिशाओं से काट देना।”

अब सोचिए – अल्लाह से कौन लड़ सकता है?
उत्तर है: जो भी मुहम्मद का विरोध करता था, उसे “अल्लाह से लड़ने वाला” कह दिया गया और उसकी हत्या जायज़ हो गई।

नतीजा: यह केवल आधी आयत छिपाने की बात नहीं, बल्कि पूरे संदर्भ को छिपाना है। यही है असली कितमान।

आलोचना:
आधा सच बोलकर इस्लाम को “शांतिपूर्ण” दिखाना – कितमान की क्लासिक मिसाल है। सत्य छिपाना भी झूठ है, इसे धार्मिक पवित्रता नहीं कहा जा सकता। (कितमान)


3. तौरिया (تورية) – दोगलेपन से जीत

परिभाषा: “ऐसे शब्दों का प्रयोग करना जिनके दो अर्थ हों – सामने वाला एक अर्थ समझे, जबकि बोलने वाला दूसरा अर्थ इरादा करे।”

हदीस संदर्भ:
सहीह बुखारी 3029, सहीह मुस्लिम 1739
الحرب خدعة
“जंग धोखा है।”

Sahih Bukhari 3029
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Sahih Muslim 1739
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तफ़सीर इब्न कसीर:
“मुसलमान युद्ध या संघर्ष में गैर-मुसलमान को धोखा देने के लिए झूठ या अस्पष्ट शब्दों का प्रयोग कर सकता है।”

आलोचना:
जब स्वयं मुहम्मद ने कहा “अल-हरबु खुद‘अह” (जंग छल है), तो यह दर्शाता है कि इस्लामी रणनीति की जड़ ही छल-कपट पर आधारित है।

यहाँ सबसे बड़ा प्रश्न उठता है –
क्या इस्लाम पूरी दुनिया को स्थायी युद्ध की स्थिति मानता है?
उत्तर है – हाँ।
इस्लाम दुनिया को दो हिस्सों में बाँटता है:

  • दारुल-इस्लाम – जहाँ इस्लाम का शासन है।
  • दारुल-हरब – युद्धभूमि, जहाँ इस्लामी क़ानून लागू नहीं।

जब तक इस्लाम सत्ता में न आ जाए, तब तक छल और झूठ की रणनीति जायज़ मानी जाती है।

4. तयसीर (تيسير) – सुविधा अनुसार शरीअत

परिभाषा: जब इस्लामी नियम बहुत कठोर या अव्यवहारिक लगते हैं, तो अस्थायी रूप से उन्हें “ढीला” कर दिया जाता है ताकि इस्लाम को सरल, उदार और सहनशील दिखाया जा सके।

कुरान 2:185:
“अल्लाह तुम्हारे लिए आसानी चाहता है और कठिनाई नहीं चाहता।”

फ़िक़्ह सिद्धांत:
अल-मशक्क़ह तज्लिबु अल-तयसीर — “कठिनाई आसानी को लाती है।”

आलोचना:
इस सिद्धांत का प्रयोग अक्सर इस्लाम को “लचीला” और “मानवतावादी” दिखाने के लिए किया जाता है। लेकिन वास्तविक उद्देश्य यह है कि गैर-मुसलमानों को मुलायम चेहरा दिखाकर आकर्षित किया जाए — जब तक कि इस्लामिक सत्ता इतनी मजबूत न हो जाए कि पूर्ण शरीअत लागू की जा सके।


5. दरूरा (الضرورة) – मजबूरी से हराम भी हलाल

परिभाषा: यदि मुसलमान किसी “खतरे” में हो, तो इस्लाम के अनुसार हराम चीज़ें भी जायज़ हो जाती हैं।

कुरान 16:106:
“जो ईमान लाने के बाद कुफ़्र करे… सिवाय उस व्यक्ति के जो मजबूर किया गया हो और उसका दिल ईमान पर क़ायम रहा हो।”

फ़िक़्ह सिद्धांत:
अल-दारुरात तुब़ीह अल-महज़ुरात — “ज़रूरत हराम को भी हलाल कर देती है।”

आलोचना:
इसका मतलब यह हुआ कि मुसलमान झूठ बोले, शराब पिए, सूअर का मांस खाए, या धोखा दे — और बाद में कह दे: “दिल से मैं तो ईमान वाला ही था।”
क्या यह धर्म है या एक सेफ-एग्जिट स्कीम?


6. मरूना (مرونة) – अवसरवादी लचीलापन

परिभाषा: गैर-इस्लामी समाजों में “मध्यम और आधुनिक” दिखने के लिए अस्थायी रूप से शरीअत के कुछ नियमों को स्थगित करना।

यूसुफ़ अल-करदावी (मुस्लिम ब्रदरहुड) – प्राथमिकताएँ:

“कठोर literalism” छोड़कर व्यवहार में लचीलापन दिखाना चाहिए, ताकि समाज में आसानी से प्रवेश कर सकें।

Jonathan D. Halevi (Jerusalem Center for Public Affairs, 2009) के अनुसार, क़रदावी की इस teaching का अर्थ यह है कि मुसलमान कभी-कभी शरीअत की सख़्ती को ढीला कर सकते हैं — बशर्ते अंतिम उद्देश्य इस्लाम की सेवा हो।


“मरूना का प्रयोग करो ताकि समाज में घुल-मिल सको… क्लबों में जाओ… बशर्ते तुम्हारी नीयत इस्लाम की सेवा करना हो।”

आलोचना:
यह असली धार्मिक लचीलापन नहीं बल्कि दोहरी ज़िंदगी जीने की रणनीति है —
“कमज़ोर पड़ो तो नरम दिखो, ताक़तवर बनो तो असली चेहरा दिखाओ?”


हदीस में झूठ – युद्ध और संधि का छल

सहीह बुखारी 3030, सहीह मुस्लिम 1739:
“जंग में झूठ और धोखा जायज़ है।”

सहीह मुस्लिम 1731C:
“जब संधि करो तो अल्लाह या उसके रसूल के नाम पर सुरक्षा मत दो। बल्कि अपने नाम पर दो या अपने साथियों के नाम पर।”

 मतलब यह कि यदि वादा अल्लाह या मुहम्मद के नाम पर तोड़ा जाए तो इस्लाम की विश्वसनीयता गिरती। इसलिए मुसलमानों को सलाह दी गई कि इंसान के नाम पर संधि करो — ताकि बाद में आसानी से तोड़ा जा सके।

मुसलमान सेनापति को यह निर्देश था कि अगर दुश्मन अमान (protection) मांगे, तो वह अमान अल्लाह और रसूल ﷺ के नाम पर न दे, बल्कि अपने या अपने साथियों के नाम से दे।

Sahih Bukhari 3030
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Sahih Muslim 1731
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यह तकनीकी रूप से एक सुरक्षा शर्त को कमजोर करना है, क्योंकि अल्लाह और रसूल के नाम पर किया गया वादा तोड़ना राजनीतिक रूप से इस्लाम में विश्वास को कमजोर करता, जबकि इंसानी नाम पर किया गया वादा अगर तोड़ा जाए तो इसे व्यक्तिगत कार्य कह कर बचाव किया जा सकता था।

और इससे जरूरत पड़ने पर इस्लामी सत्ता को संधि तोड़ने में बहुत सोच विचार नहीं कारण पड़ता।

जंग में झूठ और धोखा जायज है।

“मतलब संधि करो और तोड़ दो जायज है, दुश्मन को बात करने के लिए बुलाओ और कैद कर लो या मार दो, सोते दुश्मन पर हमला करो मार दो सब जायज”

ऐतिहासिक उदाहरण:

  • हुदैबिया की संधि – पहले की, फिर तोड़ी।
  • बनू मुस्तलिक पर हमला – सहीह बुखारी 2541 – सुबह-सुबह अचानक धावा।
  • ख़ैबर पर हमला – सहीह बुखारी 371 – फिर वही रणनीति।
  • बाद का इतिहास: टीपू सुल्तान की संधि तोड़ना, और औरंगज़ेब का सिख गुरुओं से विश्वासघात।

जामिउत-तिर्मिज़ी 1939, सहीह मुस्लिम 2605A:
“तीन झूठ जायज़ हैं – पत्नी से, दोस्त से दो लोगों में मेल कराने के लिए, और युद्ध में।”


नैतिक संकट:

  • पत्नी से झूठ: विद्वान इसके बचाव में कहते हैं कि बीवी से झूठ बोल कर रिश्ता बचाना जायज, पर यह नहीं बताते कि अगर पति ने बिना बताए दूसरा निकाह किया हुआ है, या पहले से शादी शुदा है, तो यह झूठ भी तो जायज माना जाएगा क्यों कि झूठ बोलने की हद या सीमा तय नहीं है, क्या नैतिकता में यह सही है? 
  • सुलह के लिए झूठ: इस्लामी विद्वान कहते हैं कि दोस्तों में सुलह करने के लिए झूठ सही है, मगर यह हदीस यहां भी झूठ की सीमा तय नहीं करती, मान लीजिए किसी दोस्त ने दूसरे दोस्त के यहां चोरी की हो, या दूसरे दोस्त के परिवार वाले की हत्या की हो, या कोई अतुलनीय नुकसान पहुंचाया हो तो यह बात छिपा कर दोनों में सुलह कर देना नैतिकता है? 
Sahih Bukhari 2541
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Bulugh al-Maram, Jihad 11:10
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Jami‘al-Tirmidhi 1939
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Sahih Muslim 2605
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हदीस कोई सीमा नहीं बताती। परिणाम: जीवन के हर स्तर पर झूठ की वैधता।

क्योंकि जंग(दुश्मन), दोस्त और बीवी के सिवा बचा कौन जिस से झूठ बोलने की जरूरत हो?


“अल्लाह” स्वयं मक्कार?

कुरान 3:54:
وَمَكَرُوا۟ وَمَكَرَ ٱللَّهُۖ وَٱللَّهُ خَيْرُ ٱلْمَـٰكِرِينَ

Wa makarū wa makarallāh, wallāhu khayru-l-mākirīn
“उन्होंने षड्यंत्र किया, और अल्लाह ने भी षड्यंत्र किया, और अल्लाह सबसे बड़ा षड्यंत्रकारी है।”

मकर षड्यंत्र या मक्कारी का रूट वर्ड है।

कुरान 8:30:
“जब काफ़िर तेरे ख़िलाफ़ षड्यंत्र कर रहे थे… वे मक्कारी करते हैं, और अल्लाह भी मक्कारी करता है, और अल्लाह सबसे अच्छा मक्कार है।”

कुरान 86:15–16:
“वे योजना बनाते हैं, और मैं भी योजना बनाता हूँ।”

तफ़सीर उद्धरण

1. तफ़सीर इब्न कसीर (सूरा 3:54 पर):

“They (the disbelievers) plotted (makaroo), and Allah also plotted (makara Allah), and Allah is the best of plotters.”
(अर्थात – काफ़िरों ने चाल चली, और अल्लाह ने भी चाल चली, और अल्लाह सबसे बढ़कर चाल चलने वाला है।)

2. तफ़सीर अल-क़ुर्तबी (सूरा 8:30 पर):

“Al-makr means deception (khid‘a), and Allah’s makr is to requite them for their plots, overturning them against themselves.”
(अर्थात – मक़र का अर्थ छल है; और अल्लाह का मक़र यह है कि वह उनकी चालों को उन्हीं पर पलट देता है।)


आलोचनात्मक विवेचन

इन उद्धरणों से स्पष्ट होता है कि शास्त्रीय व्याख्या में “مكر (makr)” को सामान्य रूप से “चाल, योजना, षड्यंत्र या छल” के अर्थ में ही लिया गया है।

  • क़ुरआनी प्रयोग: सूरा 3:54 और 8:30 दोनों में यह शब्द अल्लाह के संदर्भ में प्रयुक्त है।
  • शास्त्रीय तफ़सीर: इब्न कसीर, तबरी और क़ुर्तबी जैसे प्रमुख व्याख्याकार इसे छल/षड्यंत्र के अर्थ में ही समझते हैं।
  • अनुवाद: अंग्रेज़ी तफ़सीरों में भी इसे प्रायः scheme, plot, deception ही लिखा गया है।

लेकिन, आधुनिक उलेमा इस नकारात्मक अर्थ से बचने के लिए इसे “दैवी योजना” या “सुरक्षा हेतु रणनीति” कहकर प्रस्तुत करने लगे हैं। उनका तर्क है कि जब ‘मक़र’ अल्लाह की ओर से हो, तो वह अन्यायपूर्ण छल नहीं, बल्कि विरोधियों के षड्यंत्र का जवाब होता है।

समस्या यह है कि –

  1. भाषाई स्तर पर: अरबी शब्द “مكر” का शाब्दिक अर्थ छल/कुटिल योजना ही है। इसे सकारात्मक अर्थ देना भाषाई ईमानदारी पर प्रश्न खड़ा करता है।
  2. तफ़सीर परंपरा: क्लासिकल विद्वान स्वयं इसे “छल” मानते हैं, बस यह जोड़ते हैं कि अल्लाह का छल सर्वोच्च है।
  3. आधुनिक पुनर्व्याख्या: यह असल में apologetics है—यानी नकारात्मक अर्थ को ढककर इस्लामी विचार को आधुनिक नैतिकता के अनुरूप दिखाने का प्रयास।

👉 इसलिए आलोचनात्मक दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि “मकर” की वास्तविकता चाहे असुविधाजनक लगे, उसे ढकना भाषा और ईमानदारी दोनों के साथ समझौता है।

“मकर” (षड्यंत्र/धोखा) अल्लाह का गुण बताना — क्या यह परमेश्वर की छवि है या एक राजनीतिक रणनीतिकार की?


अल्लाह द्वारा क़सम तोड़ने की अनुमति

कुरान 5:89:
“अगर कोई अल्लाह की क़सम भी तोड़े, तो बस दस गरीबों को खाना खिलाकर माफी पा सकता है।”

यानी सबसे पवित्र वचन — अल्लाह के नाम की क़सम — भी सस्ती “फाइन” देकर तोड़ी जा सकती है?


क्या इस्लाम पर भरोसा किया जा सकता है?

तक़़य्या (छुपाना), कितमान (आधा सच), तौरिया (दोगलापन), तयसीर (सुविधा), दरूरा (मजबूरी), मरूना (लचीलापन), और स्वयं अल्लाह का मकर (छल) —
इन सबके बाद क्या इस्लाम को सचमुच “सत्य का धर्म” कहा जा सकता है?


निष्कर्ष – क्या इस्लाम सत्य का धर्म है?

यदि किसी धर्म को अपने “सत्य” को फैलाने के लिए

  • झूठ,
  • धोखे,
  • आधा सच,
  • क़सम तोड़ना
    जैसे तरीकों की ज़रूरत है, तो वह धर्म ईश्वर की ओर नहीं बल्कि राजनीतिक प्रभुत्व की ओर बढ़ रहा है।

सच्चा धर्म टकराव या छल से नहीं, बल्कि नैतिकता और सत्यनिष्ठा से पनपता है।
परंतु कुरान, फ़िक़्ह और पैग़ंबर की रणनीति यह दिखाती है कि झूठ संस्थागत रूप से इस्लामिक विस्तारवाद का हथियार है।


अंतिम प्रश्न

अगर इस्लाम को “सच” फैलाने के लिए भी झूठ का सहारा लेना पड़ता है…
तो क्या वह सच में “सच” है?
या बस एक कुटिल प्रचारतंत्र, जो धर्म का मुखौटा पहनकर राजनीति करता है?

यह लेख किसी अंतिम निष्कर्ष का दावा नहीं करता, बल्कि केवल प्रश्न और विचार-विमर्श प्रस्तुत करता है। कृपया इन बातों पर अपने विवेक और अध्ययन के आधार पर स्वयं सोचें और समझें।

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