अल तक़ैया: जब झूठ इबादत बन जाए — इस्लामिक छलनीति की आलोचनात्मक समीक्षा

इस्लाम में तक़ैया: सत्य की खोज या धार्मिक छल?


प्रस्तावना

जब कोई धर्म सत्य का दावा करते हुए झूठ को भी इबादत का हिस्सा बना दे, तो वहाँ केवल आस्था नहीं, बल्कि राजनीतिक रणनीति और धार्मिक चालबाज़ी छिपी होती है।
इस्लाम में “तक़ैया” (Taqiyya) एक ऐसी व्यवस्था है — जो एक ओर जान बचाने के नाम पर छूट देती है, और दूसरी ओर छल व धोखे को धार्मिक रूप से वैध ठहराती है।

“तथ्य छिपाओ, बात मोड़ो, शक्ति जुटाओ — यही तक़ैया का सार है।”


1. तक़ैया की परिभाषा और कुरानिक स्रोत

अरबी व्युत्पत्ति

“Taqiyya” (تقيّة) का मूल अर्थ है — डर या भय के कारण अपने विचार, आस्था या उद्देश्य को छिपाना।

कुरानिक प्रमाण

कुरान 3:28

“मूमिन काफ़िरों को अपना मित्र न बनाएँ… सिवाय इस स्थिति के जब तुम उनसे डरते हो (تُقَاةً — तुक़ात)।”

➡ “तुक़ात” शब्द ही बाद में “तक़ैया” की धार्मिक वैधता बनता है।

कुरान 16:106

“जो कोई ईमान लाने के बाद मजबूरी में (दिल से न होते हुए) कुफ़्र का इज़हार करे, उस पर कोई दोष नहीं।”

शिया हदीस (अल-काफी)

इमाम जाफ़र अल-सादिक़:

“Taqiyya is my religion and the religion of my forefathers. One who does not practice Taqiyya has no religion.”
(Al-Kafi, Vol. 2, p. 217)

➡ यह कथन स्पष्ट करता है कि तक़ैया केवल सुरक्षा की नीति नहीं, बल्कि धर्म का मूल तत्त्व है।


2. तक़ैया: आत्मरक्षा या धार्मिक धोखा?

समर्थक दृष्टि

कुछ विद्वान कहते हैं कि तक़ैया का प्रयोग केवल तब किया जाता है जब जान का खतरा हो।

आलोचनात्मक दृष्टि

पर यदि कोई धर्म “सत्य” है, तो उसमें सत्य कहने का साहस और नैतिक शक्ति होनी चाहिए।
झूठ को “धार्मिक छूट” बनाना — विश्वास, संवाद और समाज — तीनों के साथ छल है।

ईरान का उदाहरण
अयातुल्ला खुमैनी ने सत्ता हासिल करने से पहले लोकतंत्र और पश्चिमी मूल्यों की बात की।
लेकिन सत्ता में आते ही Islamic Government (1970, p. 28–30) में वर्णित अनुसार कठोर शरिया शासन थोप दिया।

➡ यह तक़ैया की राजनीतिक मिसाल है।


3. तक़ैया और जिहाद: दोहरे चेहरे की रणनीति

इस्लामिक फ़िक़्ह के अनुसार दारुल हरब (काफ़िरों की भूमि) में मुसलमानों को अपनी वास्तविक आस्था और उद्देश्य छिपाने की सलाह दी जाती है — जब तक संख्या और शक्ति पर्याप्त न हो जाए।

➡ यही कारण है कि बहुसंख्यक समाजों में “गंगा-जमुनी तहज़ीब” का नारा चलता है,
लेकिन मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में वही आवाज़ बदलकर “इस्लाम खतरे में है” और “निज़ाम-ए-मुस्तफ़ा” बन जाती है।

Ref: David Cook, Martyrdom in Islam (2007, p. 112)
Ref: Sayyid Qutb, Milestones (1964, Chapter 4)


4. भारतीय दृष्टिकोण: तक़ैया बनाम सत्य

भारतीय उपनिषदों का सिद्धांत:
“सत्यं वद, धर्मं चर” — सत्य बोलो, धर्म का आचरण करो।

यहाँ धर्म = नैतिक साहस।

इसके विपरीत इस्लामिक तक़ैया कहता है:
“यदि जान को खतरा हो, तो आस्था छिपा लो, झूठ बोलो।”

➡ यह भारतीय नैतिकता और वैदिक आदर्शों के बिल्कुल विपरीत है।


5. सामाजिक परिणाम: जब झूठ बन जाए इबादत

  • विश्वास का क्षरण – जब धार्मिक रूप से झूठ बोलने की छूट हो, तो उस पर भरोसा कैसे किया जाए?
  • दोहरा व्यक्तित्व – बाहर से सहिष्णुता, भीतर से आक्रोश।
  • घृणा की पैदाइश – सत्य के स्थान पर छल को धर्म मानने वाला मज़हब डर तो फैलाता है, पर श्रद्धा नहीं।

6. इस्लामी नेताओं द्वारा तक़ैया का प्रयोग

मोहम्मद की रणनीति

  • मक्का (कमज़ोरी के दौर में): सहनशीलता और शांति का संदेश।
  • मदीना (शक्ति बढ़ने पर): सीधा जिहाद, युद्ध और आक्रमण।

इब्न इशाक़, Sirat Rasul Allah (tr. Guillaume, p. 496):

“War is deception.”

आधुनिक उदाहरण

Muslim Brotherhood (US, 2008 internal memo):

“Our mission is to destroy Western civilization from within using their laws and freedoms.”

➡ यह स्पष्ट रूप से तक़ैया की आधुनिक राजनीतिक रणनीति है।


7. ज़फ़रनामा और भारतीय धार्मिक उत्तर

गुरु गोबिंद सिंह जी का ज़फ़रनामा (औरंगज़ेब को लिखी चिट्ठी):

“कसमें खुदाई कीन्ही बहुतै,
पर निभायो एक न दरुस्तै!”

➡ “You swore many oaths in God’s name, but never honored a single one.”

दशम ग्रंथ में ऐसी धार्मिक धूर्तता को “अधर्म” घोषित किया गया।


निष्कर्ष

तक़ैया केवल व्यक्तिगत मजबूरी नहीं, बल्कि धार्मिक छल का संस्थागत रूप है।
जब किसी मज़हब में झूठ भी इबादत बन जाए, तब वहाँ सच्चाई, नैतिकता और मानवता की कोई जगह नहीं बचती।

“जो मज़हब तक़ैया को धर्म मानता है,
वह आस्था नहीं, साज़िश है।
वह धार्मिकता नहीं, राजनीति है।
वह शांति नहीं, वर्चस्व की योजना है।”

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