हिजाब का फरेब: सुरक्षा या सज़ा?

परिचय

हिजाब को “औरतों की सुरक्षा और सम्मान” का तमगा देकर मौलवी इसे अल्लाह की “नेमत” बताते हैं। लेकिन क्या यह सचमुच सुरक्षा थी, या सिर्फ पुरुषों की हवस और सामाजिक दबाव का नतीजा? कुरान और हदीस बताते हैं कि हिजाब कोई वरदान नहीं, बल्कि औरतों को कैद करने का हथियार था। आइए इस ढोंग को तोड़ें और सच को बेनकाब करें।


भाग 1: हिजाब की आयत—क्यों और कैसे?

1.1 हालात का सच

1400 साल पहले अरब में शौचालय नहीं थे। औरतें रात में खुले मैदानों में जाती थीं—सहीह बुखारी (148 & 6240) में हज़रत आयशा बताती हैं कि पैगंबर की बीवियाँ “अल-मनासी” मैदान में जाती थीं, और उमर बिन अल-खत्ताब उन्हें देख, छेड़छाड़ करते थे।

उमर बिन अल-खत्ताब बार-बार कहते, “अपनी बीवियों को पर्दे में करो।” पैगंबर ने इसे टाल दिया।

सहीह मुस्लिम (हदीस 2170A और 2170D) बताती है कि एक रात उमर ने सौदा बिन्त ज़मा को पहचानकर छेड़ा“सौदा, हमने तुम्हें पहचान लिया।”

सौदा ने इसकी शिकायत पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) से की। हदीस साफ बताती है कि उमर की यह हरकत पर्दे की आयत के अवतरण का दबाव बनाने के लिए थी।

लेकिन यहाँ दो महत्वपूर्ण सवाल उठते हैं:

  1. जब सौदा ने पैगंबर से शिकायत की, तो वह मांस खा रहे थे और उनके हाथ में हड्डी थी। ऐसी शिकायत सुनकर भी पैगंबर को गुस्सा नहीं आया। उन्होंने उमर को गलत ठहराने की जगह, पर्दे की आयत नाज़िल कर दी
  2. क्या यह साबित नहीं करता कि आयात केवल अल्लाह की मर्जी से नाज़िल नहीं होती थी, बल्कि रसूखदार पुरुष—जैसे उमर—अपनी इच्छा और दबाव से धार्मिक आदेश भी प्रभावित करवा सकते थे?

और तुरंत आयत नाज़िल हुई—सूरह अल-अहज़ाब (33:59):

“अपनी बीवियों, बेटियों और मुस्लिम औरतों से कहो कि चादर ओढ़ लें।”

इब्न हिशाम की सीरत रसूल अल्लाह (पृ. 290) भी इसे पुष्टि करती है।

यह सवाल हिजाब की वास्तविक वजह और उसकी ऐतिहासिक परिस्थितियों को उजागर करता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि महिलाओं पर पर्दा केवल पुरुषों की हवस और दबाव के चलते लागू किया गया?


1.2 ढोंग का पर्दा

मौलवी कहते हैं—यह “बुरी नज़र” से बचाने के लिए था।

तो सवाल उठता है: जब यह आयत आई, मदीना में ज्यादातर मुसलमान थे—फिर किसकी बुरी नज़र से बचाना था? क्या मुसलमान सहाबी ही औरतों को गंदी निगाह से देखते थे?

सहीह बुखारी (हदीस 148) में उमर का यह कहना कि “औरतें खुली हैं” साफ दिखाता है कि खतरा बाहर से नहीं, भीतर से था।

जब यह आयत नाज़िल हुई, तो वहां सब मुसलमान थे—फिर किसकी बुरी नज़र से बचाने की बात थी? जवाब केवल एक ही है: इस्लामी पुरुषों से ही।


भाग 2: सुरक्षा या पाबंदी?

2.1 असली मकसद

अगर कोई पुरुष औरत को छेड़े, तो सजा देनी चाहिए या औरत को कैद करना चाहिए? इस्लाम ने दूसरा रास्ता चुना।

सूरह अन-नूर (24:31) में औरतों को “नज़र झुकाने” और “चादर ओढ़ने” का आदेश है, जबकि पुरुषों को “नज़र झुकाने” का आदेश (24:30) केवल नैतिक उपदेश है—कोई कानूनी सजा नहीं।

सहीह बुखारी (हदीस 6240) में स्पष्ट है कि उमर का छेड़ना ही पर्दे की आयत का कारण बना। सुनन अबू दाऊद (हदीस 4102) में भी पुरुषों की अशिष्ट हरकतें दर्ज हैं, लेकिन कोई सजा का जिक्र नहीं

इस्लामी ग्रंथों से साफ है कि उस समय अरब के पुरुष अपनी यौन इच्छाओं पर नियंत्रण नहीं रख पाते थे

सहीह मुस्लिम (1403A) में बताया गया है—पैगंबर ने बाजार में एक औरत को देखा, फिर अपनी पत्नी ज़ैनब के पास गए, जो चमड़ा साफ कर रही थीं। अपनी इच्छा पूरी करने के बाद उन्होंने कहा:
“औरत शैतान के रूप में आती है।”

बाजार में औरत का चलना भी पुरुषों की उत्तेजना बढ़ा देता था, और दोष औरतों पर डाला गया कि वे शैतान हैं।


2.2 उमर का दबाव

पैगंबर ने पहले पर्दे को जरूरी नहीं माना। सहीह बुखारी (हदीस 146) में उमर की जिद थी:
“औरतें बाहर निकलती हैं, उन्हें ढक दो।”

सौदा की शिकायत के बाद ही आयत नाज़िल हुई। अल-तबरी की तारीख (जिल्द 2, पृ. 402) भी बताती है कि उमर का दबाव स्पष्ट था

सहीह मुस्लिम (हदीस 3240 international no. 1400) में पैगंबर कहते हैं:
“औरत शैतान के रूप में सामने आती है और शैतान के रूप में पीछे जाती है। जब कोई पुरुष किसी औरत को देखे और आकर्षित हो, तो उसे अपनी पत्नी या दासी के पास जाकर अपनी इच्छा शांत करनी चाहिए।”

मतलब साफ है—अगर पुरुष अपनी उत्तेजना पर काबू नहीं रख सके, तो दोष औरतों को ठहराया गया


भाग 3: हिजाब का काला इतिहास

3.1 जाहिलिय्या का सच

खदीजा व्यापार करती थीं, और वह बिना किसी पर्दे के स्वतंत्र रूप से काम करती थीं।

अरब के कई अन्य महिलाएँ भी सामाजिक और राजनीतिक रूप से स्वतंत्र थीं। उदाहरण के लिए:

  • सबा की रानी बिल्किस (कुरान, सूरह अन-नम्ल 27:23-44)
  • बनु कुरैजा की रानी सफियाह
  • बनु हाश्मी की मैमुना, जिसे मुहम्मद ने खुद पर हिबा करने का प्रस्ताव दिया था, लेकिन उन्होंने जवाब दिया: “एक रानी खुद को हिबा नहीं करती।”
  • उम्मे किरफा जैसी अन्य रानियां

लेकिन इस्लाम के आगमन के बाद, इन महिलाओं को जंजीरों में जकड़ दिया गया।
सहीह मुस्लिम (हदीस 1860) में उल्लेख है कि पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) की अपनी बेटी फातिमा तक को सख्ती झेलनी पड़ी— यहाँ तक कि उनसे वो सब छीन लिया गया जो मुहम्मद ने उनको दिया था जैसे बाग़ ए फ़िदक — (सहीह बुखारी, हदीस 4241), उनके घर का दरवाजा तोड़ा गया उनके घर को आग लगाई।

इतिहासकारों और हदीस के अनुसार, इस घटना से फातिमा का गर्भपात हुआउनको शारीरिक और मानसिक चोटें लगीं, जो आगे चलकर उनकी मृत्यु में एक कारक बनीं।


3.2 सहाबियों का रवैया

सहीह बुखारी (हदीस 402) में दर्ज है कि एक पुरुष ने पैगंबर की बीवी को देखा—सिर्फ डांट मिली, सजा नहीं।

उमर का सौदा को छेड़ना यह साफ करता है कि “बुरी नज़र” मुसलमानों से ही थी, और इन्हीं से औरतों को बचाने के लिए पर्दा आया।

इब्न साद की तबकातत (जिल्द 8, पृ. 116) में सहाबियों की ऐसी घटनाएँ दर्ज हैं, जो साबित करती हैं कि हिजाब का असली मकसद औरतों की आज़ादी पर नियंत्रण था, न कि उनकी सुरक्षा।


पर्दे की आयत और सौदा बिन्त ज़मा: एक नैतिक विडंबना?

सवाल उठता है: क्या वह महिला जिसे पर्दे की छूट मिली, वही पर्दे की आयत का कारण बनी?

कुरान में आयत 24:60 कहती है:
“और वृद्ध महिलाएं जो विवाह की आशा नहीं रखतीं, उनके लिए कोई पाप नहीं यदि वे अपने बाहरी कपड़े उतार दें, बशर्ते कि वे सजधज न हों।”

इब्न कसीर और अन्य मुफ़स्सिरीन के अनुसार, यह रुख्सत (छूट) उन वृद्ध महिलाओं के लिए थी जो यौन आकांक्षा से परे हैं।

सहीह मुस्लिम (हदीस 1463) में बताया गया कि सौदा को अपनी बढ़ती उम्र के कारन डर हुआ कि रसूल उन्हें तलाक न दे दें, क्योंकि वह “बूढ़ी हो चुकी थीं”। सौदा ने कहा कि वह चाहती हैं कि “क़यामत के दिन उनकी पत्नियों में उनका नाम हो,” इसलिए उन्होंने अपनी बारी आयशा को दे दी।

नैतिक विरोधाभास:

  • जिस महिला को पर्दा छोड़ने की छूट मिली (सौदा) — वही पर्दे की वजह बनी।
  • जिस महिला को मोहम्मद तलाक देना चाहते थे — वही विवाहिक दर्जा बचाने के लिए आयशा को अपनी बारी देती है।

इससे स्पष्ट होता है कि पर्दे की आयतें पत्नी की पहचान या सम्मान की सुरक्षा के लिए नहीं, बल्कि युवाओं से दूरी बनाए रखने के लिए आई थीं।


भाग 4: निष्कर्ष—हिजाब का ढोंग

हिजाब औरतों की सुरक्षा का ढोंग था।

यह सुरक्षा नहीं, बल्कि पुरुषों की गंदी नज़रों का बहाना था। मौलवियों ने इसे “इज्ज़त” का लबादा पहनाकर आलोचना से बचाया।

अगर पुरुषों की हवस असली मुद्दा थी, तो अल्लाह—जो बात-बात पर जहन्नुम की आग से डराता है—ने उन्हें सजा क्यों नहीं दी?
बुरी नज़र पर पर्दे की आयत की जगह, सजा की आयत क्यों नहीं आई?

सच यह है कि हिजाब औरतों को कैद करने का हथियार था—इसे सुरक्षा का ढोंग मत मानो।
इसके बाद अरब से कोई खदीजा जैसी बिजनेस टाइकून नहीं बनी, न कोई महिला शासक हुई। शायद यही सोच थी—जहां पुरुष अपने आप पर नियंत्रण नहीं कर सकते और औरत को शैतान कहते हैं, वहां औरतों को पर्दे में रखा गया।

पैगंबर की भाषा में कहें—“शैतान को ढक दिया गया।”

जाकिर नायक ने भी कहा:
“अगर टीवी पर बैठी महिला एंकर को 20 मिनट देखने के बाद भी आपके शरीर में हलचल नहीं होती, तो आप नामर्द हैं।”
यह दर्शाता है कि पुरुषों की उत्तेजना को नियंत्रित करना क्यों उनके लिए चुनौतीपूर्ण था।


Part 4.5: आज की चिंता — Hijab का वर्तमान परिप्रेक्ष्य

जब हम इतिहास को देखते हैं, तो यह साफ़ दिखता है कि हिजाब महिलाओं पर थोपे गए प्रतिबंध का साधन था। लेकिन आज के दौर में भी यह विवाद जारी है।

ईरान:
1960 के दशक में ईरानी महिलाएँ स्वतंत्र थीं—बिना हिजाब के पढ़ाई, नौकरी और सामाजिक जीवन जी रही थीं। लेकिन इस्लामी क्रांति के बाद हिजाब अनिवार्य कर दिया गया। आज ईरान की सड़कों पर महिलाएँ इसी जबरन थोपे गए हिजाब के खिलाफ विद्रोह कर रही हैं। बीबीसी और अल-जज़ीरा की रिपोर्ट्स बार-बार दिखाती हैं कि वहाँ की महिलाएँ आज़ादी की माँग कर रही हैं—वो हिजाब से मुक्ति चाहती हैं।

भारत और लोकतांत्रिक देश:
इसके उलट भारत में संविधान ने हर महिला को यह अधिकार दिया है कि वह चाहे तो हिजाब पहने या न पहने। यहाँ यह व्यक्तिगत पसंद है, लेकिन फिर भी कट्टरपंथी ताक़तें इसे विवाद का विषय बना देती हैं। मज़ेदार बात यह है कि जो लोग अदालतों और चुनावों में हिजाब की लड़ाई लड़ते हैं, वही लोग शादी-पार्टी और ख़ास मौकों पर बिना हिजाब के नज़र आते हैं।

विरोधाभास:

  • जहाँ हिजाब ज़बरन लागू है (ईरान, अफ़ग़ानिस्तान जैसे देशों में), महिलाएँ विद्रोह कर रही हैं।
  • जहाँ हिजाब स्वतंत्रता है (भारत, यूरोप, अमेरिका), वहाँ महिलाएँ खुश हैं और इसे अपनी मर्ज़ी से चुनती या छोड़ती हैं।

तो सवाल उठता है: अगर हिजाब वाक़ई सुरक्षा और सम्मान का प्रतीक होता, तो जिन देशों में यह अनिवार्य है वहाँ महिलाएँ सबसे अधिक असंतुष्ट क्यों हैं?
और जहाँ यह विकल्प है, वहाँ महिलाएँ क्यों कहीं ज़्यादा आत्मविश्वास और खुशहाल दिखती हैं?


भाग 5: सवाल जो कचोटते हैं

  1. अगर हिजाब सुरक्षा था, तो पुरुषों को सजा का आदेश क्यों नहीं आया?
  2. क्या सहाबियों की “बुरी नज़र” से बचाने के लिए औरतें जंजीरों में जकड़ी गईं?
  3. उमर की छेड़खानी पर आयत आई—क्या यह अल्लाह का हुक्म था, या उमर की जीत?
  4. शराब हराम हुई, तो पुरुषों की हवस हराम क्यों नहीं हुई?
  5. आपकी बेटी को कोई छेड़े, तो आप उसे सजा देंगे या पर्दे में ढकेंगे?
  6. अगर अल्लाह सर्वशक्तिमान था, तो पुरुषों को काबू करने के बजाय औरतों को क्यों कुचला गया?

निष्कर्ष:
हिजाब सच नहीं—यह महिलाओं को गुलाम बनाने का फरमान था। इतिहास और हदीस इसके गवाह हैं।

बाकी सही और गलत, यह आपको खुद सोचने पर छोड़ता है।

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