
क्या यह दैवीय भाषा है या मानवीय क्रोध?
“सभ्यता की ऊँचाई पर विराजमान सर्वशक्तिमान और उनका दूत, जो नफरत, शाप और अश्लील शारीरिक अपशब्द बोलता है—क्या उसे वास्तव में करुणामय कहा जा सकता है?”
(कुरान और हदीस की भाषा पर एक अध्ययन)
नोट: अगर आप की भावनाएं जल्दी आहत हो जाती हैं, तो पहले [भावना आहत] पढ़ें।
पिछले लेखों में हमने अपने भीतर बसे ईश्वर के स्वरूप और उसके गुणों पर चर्चा की थी, और उनकी तुलना इस्लामी ग्रंथों में वर्णित अल्लाह की छवि से की थी। इस बार प्रश्न यह है—क्या कुरान और हदीस में प्रयुक्त भाषा सचमुच दैवीय है?
क्या करुणा और न्याय का संदेश देने वाले ईश्वर की वाणी में अपमान, गाली और तिरस्कार के शब्द हो सकते हैं?
1. जब खुदा खुद अपमानजनक भाषा का प्रयोग करता है
ग़ैर–मुसलमानों के लिए कठोर संबोधन
कुरान में कई स्थानों पर उन लोगों के लिए कठोर और अपमानजनक शब्द मिलते हैं, जो इस्लाम को स्वीकार नहीं करते:

क़ुरआन 9:28
“अल-मुशरिकून (मूर्तिपूजक) नापाक (نَجَسٌ) हैं।”
➤ “Najasun” का अर्थ है “गंदगी”, “टट्टी”, “अपवित्रता”।
सवाल उठता है—क्या एक ऐसा ईश्वर, जो अपने बनाए इंसानों को इस प्रकार संबोधित करे, वास्तव में सर्वव्यापक और सहिष्णु और सबको समान दृष्टि से देखने वालामाना जा सकता है?
क़ुरआन 68:10-13 (सूरह क़लम)
“तू न किसी झूठे की बात मान, न किसी लानत भेजने वाले की, न ताने देने वाले की, न बुराई से रोकने वाले की, न ज़लील और बदचलन की — ज़नीम (زنیم)।”
“Zaneem” का अर्थ मफस्सिरीन ने किया है:

- Ibn Kathir: “illegitimate son” यानी हरामी
- Tafsir al-Jalalayn: “one whose lineage is uncertain”
2. जानवरों से तुलना: बंदर, गधा, कुत्ता और सूअर
कुरान में कुछ गैर-मुसलमानों की जानवरों से तुलना मिलती है:
| जानवर | संदर्भ (कुरान) | विवरण |
|---|---|---|
| बंदर | 2:65, 7:166 | यहूदियों को बंदर बना दिया गया |
| सूअर | 5:60 | यहूदी और नसरानी को सूअर कहा गया |
| गधा | 62:5 | यहूदी जिन्हें किताब लादी गई, उन्हें गधा कहा गया |
| कुत्ता | 7:176 | अविश्वासी (नॉन मुस्लिम) की मिसाल कुत्ते जैसी है |
| सबसे बुरे जानवर | 8:55 | धरती पर सबसे बुरे लोग वे हैं जिन्होंने इनकार किया |
इसके अलावा, कुरान 47:4 में निर्देश है:
“जब तुम इनकार करनेवालों से मिलो तो उनकी गर्दनें काट डालो, यहाँ तक कि उन्हें कुचल डालो। फिर अपने बन्दियों को बाँध लो, और उन्हें नेकी या फिरौती के माध्यम से छोड़ दो।”
यह भाषा बदला, क्रोध और हिंसा की ओर संकेत करती है।
सवाल उठता है—क्या यह ईश्वरीय भाषा है या सीधे धार्मिक और नस्लीय नफरत को बढ़ावा देने वाला संदेश (“Divine racism”)?
क्या किसी दयालु और सर्वव्यापक ईश्वर से यह अपेक्षित है कि वह अपनी प्रजा से इस तरह संवाद करे?
2. मुहम्मद का अश्लील हुक्म — पिता की लिंग काटो
Al-Adab Al-Mufrad 963 (Sahih chain) में उल्लेख है कि:
“जिसने अपने को जाहीलीयत (पूर्व-इस्लाम) के वंश से जोड़ा, उसे अपने पिता के जननांग को काटने का आदेश दें। इसे स्पष्ट रूप से कहें, इशारे में नहीं।”

यह कोई “अहिंसक” या “सभ्य” जवाब नहीं, बल्कि एक विकृत, आक्रोशपूर्ण और अश्लील आदेश है। एक नबी, जिसे “अख़लाक़ का नमूना” बताया जाता है (Q 68:4), वह खुलेआम जननांग को काटने की बात करता है? क्या ऐसा आदेश वास्तव में दैवीय प्रेरणा से आया है, या यह किसी मानवीय गुस्से और आक्रोश का प्रतिबिंब है?
अन्य कई हदीसों में यहूदियों और ईसाइयों को “मग़दूब” (अल्लाह का कोप झेलने वाले) कहा गया है। यह भाषा क्या करुणा और सभ्यता का प्रतीक हो सकती है?
3. अबू बक्र के कथन — अल्लात की योनि चाटो!
Sahih al-Bukhari 2581 में अबू बक्र के कथन का उल्लेख है:
Sahih al-Bukhari 2581
अबू बक्र ने कहा:
“Go lick al-Lat’s clitoris!”
(“امصص بظر اللات” — इम्सुस बज़र अल-लात)

यह सीधा स्त्री यौन अंग को लक्षित गाली है। अबू बक्र, जिन्हें “अशराह मुबश्शराह” यानी जन्नती कहकर महिमामंडित किया गया, वो अल्लात देवी के अंग पर अत्यंत गंदी और अभद्र गाली दे रहे हैं।
यह कथन में भाषा अश्लील और लक्ष्यपूर्ण रूप से अपमानजनक है, और इसे पढ़कर प्रश्न उठता है—क्या यह किसी दैवीय आदेश के अनुरूप हो सकता है?
Sahih al-Bukhari 25814. अल्लाह की भाषा: दैवीय या मानवीय?
हर धर्म का दावा है कि उसका ईश्वर अपनी प्रजा को ज्ञान और मार्गदर्शन देता है। लेकिन कुरान और हदीस की कुछ आयतें और कथन ऐसा प्रतीत कराते हैं कि भाषा में क्रोध, अपमान और कठोरता झलकती है।

अब प्रश्न यह है—क्या यह वास्तव में ईश्वर की दैवीय भाषा हो सकती है?
यदि ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान है, तो क्या वह अपनी सृष्टि से इस तरह संवाद करेगा, या यह संभव है कि लिखने वाले लेखक ने अपनी भावनाएँ—गुस्सा, आक्रोश और अपमान—भी ग्रंथ में शामिल कर दी हों?
3. “गाली” या “दैवी चेतावनी”?
कुछ मुस्लिम विद्वानों का तर्क है कि कुरान और हदीस में कठोर भाषा इसलिए प्रयुक्त हुई, ताकि विरोधियों और अविश्वासियों को डराया और अनुशासित किया जा सके। लेकिन सवाल उठता है—क्या दिव्यता का परिचय डर और अपमान से होता है?
यदि ईश्वर का संदेश वास्तव में प्रेम, करुणा और न्याय पर आधारित है, तो क्या भाषा इतनी कठोर और कभी-कभी असभ्य प्रतीत हो सकती है?

यहाँ पाठक से यह प्रश्न जुड़ता है:
क्या ईश्वर वास्तव में अपमानजनक शब्दों का प्रयोग कर सकता है?
कुरान और हदीस में पैगंबर के आदेश अक्सर सर्वकालिक और सार्वभौमिक माने जाते हैं। अगर हम कुछ कठोर या अपमानजनक कथनों को “उस समय के लिए” कहकर खारिज कर दें, तो फिर अन्य आदेशों पर भी यही सवाल उठना चाहिए। यह दोहरा मानक नहीं होना चाहिए।आपत्ति तब उत्पन्न होती है जब कुछ कथनों को समय और संदर्भ से जोड़कर बचाया जाता है, जबकि कुरआन के आदेशों या पैगंबर के अन्य व्यवहारों को सार्वकालिक मान लिया जाता है।
कुछ लोग कहते हैं कि ये कथन केवल उपमा हैं। लेकिन सवाल यह है—क्या सर्वज्ञानी ईश्वर उपमाएँ देते समय इतने निंदात्मक और अपमानजनक शब्द चुनेंगे? क्या वह सरल और संवेदनशील तरीके से नहीं कह सकते थे कि “वे सत्य से भटक गए हैं” या “वे अज्ञान में हैं”?

4. भाषा और ईश्वर की छवि
कुरान और हदीस की कठोर और अपमानजनक कथनों को पढ़कर यह प्रश्न उठता है:
- क्या यह भाषा सचमुच दैवीय वाणी हो सकती है?
- क्या यह किसी मानवीय प्रतिक्रिया—क्रोध, घृणा और अपमान—से अलग नहीं लगती?
यदि यह भाषा वास्तव में दैवीय है, तो क्या हमें यह मान लेना चाहिए कि ईश्वर स्वयं भी अपशब्द और कठोरता का प्रयोग कर सकते हैं?
5. निष्कर्ष
एक माता-पिता भी अपने बच्चों के सामने अपनी भाषा नियंत्रित करते हैं, ताकि उनके विचार प्रभावित न हों।
लेकिन यहां कुरान और हदीस में ऐसी भाषा दिखाई देती है जो कठोर, अपमानजनक और आक्रोशपूर्ण प्रतीत होती है।
- क्या यह सचमुच हमारे भीतर बसे करुणामयी और न्यायप्रिय ईश्वर की भाषा हो सकती है?
- या फिर यह मानवीय क्रोध और समाजिक संघर्ष का परिणाम है, जिसे बाद में “दैवी वाणी” घोषित कर दिया गया?

यदि एक आस्थावान मुस्लिम इसे दैवीय मानकर पढ़ता है, तो वह मान सकता है कि गुस्सा, शाप और कठोरता भी धार्मिक आचरण का हिस्सा हैं, और यही कारण है कि धार्मिक व्यवहार में कठोरता और असहिष्णुता देखने को मिलती है।
लेकिन यदि यह भाषा वास्तव में मानवीय है और ईश्वर की सच्ची वाणी नहीं है, तो इसका अर्थ है कि हमने ईश्वर की छवि को गलत समझा और उसे मानवीय दुर्बलताओं से ढक दिया।
सकारात्मक चिंतन
अब यह हम सबके लिए विचार का विषय है:
- क्या यह भाषा हमारे भीतर बसे उस दैवीय ईश्वर से मेल खाती है—जो न्यायप्रिय, करुणामयी और प्रेममय है?
- यदि नहीं, तो क्या हमें मान लेना चाहिए कि धार्मिक ग्रंथों में मानवीय हस्तक्षेप हुआ और किसी ने ईश्वर की छवि को धूमिल करने का प्रयास किया?
- या फिर कोई कह सकता है—“हाँ, मेरा ईश्वर भी अपमानजनक शब्द बोल सकता है।”
दोनों दृष्टिकोण आपके सामने हैं। निर्णय आपके विवेक और अंतःकरण पर निर्भर करता है।
निष्कर्ष व संदेश:
- सभ्यता का धर्म गालियों और अपमान से भरा नहीं होता।
- ईश्वर वह नहीं जो अपने बनाए इंसानों को अपवित्र या अपमानजनक कहे।
- रसूल वह नहीं जो अत्यधिक कठोर और अपमानजनक आदेश दे।
- धर्म वह नहीं जो नफरत, नस्लवाद और अभद्रता से ग्रंथों को भर दे।
यदि ईश्वर की वाणी को अपमान, गाली और घृणा से भरा मान लिया जाए, तो वह छवि सार्वभौमिक, प्रेममय और न्यायप्रिय ईश्वर से मेल नहीं खाती, जिसकी कल्पना हम अपने हृदय में करते हैं।
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