आतंकवाद का कोई धर्म नहीं

ऑल इंडिया फ़तवा बोर्ड के ‘खुदकुशी–दहशतवाद’ फ़तवे की अकादमिक चीरफ़ाड़

यह फतवा इस्लामी दार्शनिक, भाषाई और फिक्ही मानकों पर कितना खरा उतरता है, यही इस समीक्षा का उद्देश्य है।

कहा जाता है कि इस्लाम में अकल (बुद्धि) का दखल मना है, और यह बात इस फ़तवे के साथ-साथ इसे साझा करने वाले भी साबित करते हैं।


स्रोत की विश्वसनीयता और संस्थागत अस्पष्टता

भारतीय इस्लामी संस्थागत परंपरा में कहीं भी न पाई जाने वाली एक संस्था, “ऑल इंडिया फ़तवा बोर्ड (AIFB)”, ने हाल ही में “खुदकुशी” और “दहशतगर्दी” को हराम (निषिद्ध) घोषित करते हुए एक फ़तवा जारी किया है।

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Fatwa Image

यह फ़तवा कुछ ऐसा है जैसे कोई मेडिकल छात्र एनाटॉमी की किताब खोलकर सिर्फ़ चित्र देखकर ऑपरेशन करने चला हो: दिखाने का उत्साह बहुत है, पर ज्ञान का अनुपात अत्यंत सीमित। फ़तवे के दावों का भाषाई, ऐतिहासिक और संदर्भात्मक विश्लेषण शुरू करने से पहले, इसके स्रोत की विश्वसनीयता की जाँच आवश्यक है।

ऑल इंडिया फ़तवा बोर्ड की अकादमिक जड़ें अस्पष्ट हैं। यह किसी भी स्थापित दारुल-उलूम, नदवा, अशरफ़िया, निज़ामिया या जामिया जैसे प्रमुख इस्लामी विश्वविद्यालय (मान्यता प्राप्त मदरसे) से जुड़ा हुआ प्रतीत नहीं होता। मुख्य हस्ताक्षरकर्ता, मुफ़्ती शफ़क़ाअत मोहम्मद नूरी स़िफ़ायी, की शैक्षणिक या शोधपरक रचनाएँ सार्वजनिक रूप से अपरिचित हैं। इन्हें न तो किसी मान्यताप्राप्त बरेलवी दारुल-इफ्ता में दर्ज किया गया है, न देवबंदी इन्हें मानते हैं, और न ही अहले-हदीस इन्हें पहचानते हैं। यह संस्था न तो एआईएमपीएलबी (AIMPLB) के रिकॉर्ड में सूचीबद्ध है, न ही प्रमुख देवबंदी या बरेलवी संकलनों में। मुफ़्ती साहब की शोध, किताबें, या क़ानूनी रचनाएँ—रिकॉर्ड में शून्य हैं।

इसका अर्थ यह है कि यह फ़तवा एक ऐसे “बोर्ड” से आया है, जिसे इस्लामी दुनिया की कोई भी यूनिवर्सिटी बोर्ड मान्य नहीं करती; इसे ज़्यादा से ज़्यादा एक प्राइवेट लिमिटेड धार्मिक ओपिनियन कंपनी कहा जा सकता है।


1.  कुरान 5:32 का भ्रामक उपयोग: यहूदियों का कानून मुसलमानों पर थोपना

फ़तवा आत्मविश्वास से दहशतगर्दी के विरुद्ध तर्क देने के लिए कुरान 5:32 का हवाला देता है: जिसने एक बेगुनाह की जान ली, उसने पूरी इंसानियत को मारा।” यह सुनने में सुंदर लगता है, जैसे किसी ब्रॉशर का नारा, लेकिन समस्या यह है कि यह आयत मुसलमानों से संबोधित ही नहीं है।

फ़तवे में जानबूझकर 5:32 का पूर्वांग (preamble) छिपाया गया है। अरबी मूल पाठ स्पष्ट रूप से कहता है: 

مِنْ أَجْلِ ذَٰلِكَ كَتَبْنَا عَلَىٰ بَنِي إِسْرَائِيلَ

इसी कारण हमने बनू इस्राईल (इस्राईल की संतान/यहूदियों) पर लिखा (क़ानून बनाया)…”

इस आयत का संदर्भ क़ाबिल (Cain) और हाबिल (Abel) की कहानी से शुरू होता है और यह विशेष रूप से यहूदियों के कानून (तल्मूदिक सिद्धांत) को संबोधित करता है। इब्न-कसीर, कर्तबी, तबरी, सभी ने 5:32 को ‘बनी इस्राईल की शरियत’ बताया है। किसी भी क्लासिकल तफ़सीर (व्याख्या) ने इसे मुसलमानों का कानून नहीं माना। इस पाठ को मुसलमानों पर लागू करना चयनात्मक और भ्रामक है। यह आयत मुसलमानों पर लागू ही नहीं होती

मुफ़्ती साहब ने इसे ऐसे पेश किया मानो “इंसानियत दिवस” का पोस्टर बना रहे हों, और असली खेल यह किया कि इसकी अगली ही आयत 5:33 को गायब कर दिया, जो मुसलमानों पर लागू होती है। 

5:32 के अगले ही वाक्य में कुरान मुसलमानों के कानून के बारे में कहता है:

  जो लोग अल्लाह और रसूल से लड़ें- उनके हाथ-पाँव विपरीत दिशाओं में काट दो…” 

यानी अंग-भंग, सूली, निर्वासन। इन सबका ज़िक्र मुफ़्ती साहब ने ऐसे छुपाया है जैसे बच्चा होमवर्क में “कठिन प्रश्न” मिटा देता है।


2. कुरान 4:29: “खुदकुशी” शब्द का मनगढ़ंत आरोपण

फ़तवा क़ुरान 4:29 का हवाला देता है:

  व ला तक़्तुलू अन्फुसकुम” – खुदकुशी मत करो।

पर 4:29 का अरबी मूल है:

  لَا تَقْتُلُوا أَنْفُسَكُمْ

जिसका शाब्दिक और संदर्भात्मक अनुवाद है: एक-दूसरे को मत मारो” (Do not kill one another) या आपस में हिंसा मत करो” (Do not commit communal violence)। अगर ‘लातक़्तुलू अनफ़ुसकुम’ का अर्थ ‘suicide’ होता, तो मुहम्मद साहब के ज़माने में हज़ारों सहाबा इसे ‘आपस में न मारो’ क्यों समझते थे?

अरबी में ‘Suicide’ के लिए शब्द है: انتحار (इन्तिहार), और वह पूरी कुरान में एक बार भी नहीं आया है। यह इस्लामी फ़िक़्ह की बाद की व्याख्या है। 

इस फ़तवे में कुरान की आयतों के अनुवाद का स्तर यह है कि: टेक्स्ट लिखा है एक-दूसरे को मत मारो” और अनुवाद किया है खुदकुशी हराम”। यह ऐसा है जैसे “No Smoking” को अनुवाद कर कह दिया जाए: “घर जाकर चाय पियो।”


3. कुरान 2:195: जिहाद में खर्च को आत्मघाती हमला बताना

कुरान कहता है: अल्लाह की राह में खर्च करो, और अपने आपको “हलाकत” में मत डालो।”

यहाँ खर्च न करने को हलाकत (विनाश) कहा गया है। मगर हमारे ‘आलिम ए दीन’ मुफ़्ती साहब इसका अर्थ लेते हैं: खुदकुशी हराम।” 

जबकि हलाकत का संदर्भ खर्च बंद करने या युद्ध के मैदान से पीछे हटने से होता है। मुफ़्ती ने यहाँ मूल अरबी अर्थ को बदलकर ‘खुदकुशी हराम’ का एक आधुनिक सिद्धांत स्थापित करने का प्रयास किया है।


4. जिहाद फ़ी सबीलिल्लाह और शहादत की अनदेखी

यदि मौत और दहशतगर्दी ही मुख्य विषय हैं, तो कुरान के वे अध्याय मुफ़्ती साहब की कैंची” का शिकार क्यों बने जो जिहाद में मारे जाने को गौरवान्वित करते हैं?

  • सूरह तौबा 9:111 (मर कर “बेच देने” का सौदा): وَيَقْتُلُونَ وَيُقْتَلُونَ — “वे मारते हैं और मारे जाते हैं… अल्लाह ने उनके बदले जन्नत खरीद ली है।” यहां मारे जाना (combat death) को अल्लाह से सौदा बताया गया है। यानी combat-death न केवल स्वीकार्य, बल्कि प्रतिफलयुक्त (rewarded) बताया गया है। फ़तवा इसे छुपाता है, क्योंकि यह “मारना–मरना = जन्नत” का सीधा वादा है।\
  • 2:154 (मृत न कहो): जो लोग अल्लाह की राह में मारे जाएँ उन्हें मृत न कहो…” यह आयत स्पष्ट करती है कि युद्ध में मारे जाना एक ऊपर उठाया गया दर्ज़ा है, सामान्य मृत्यु जैसा नहीं।
  • 3:169–171 (ज़िंदा हैं): जो मारे गए, वे ज़िंदा हैं, जन्नत में खा रहे हैं।” यह सब “शहादत की तमन्ना” को बढ़ावा देते हैं; जिहाद में मरना वांछनीय और गौरवान्वित (glorified) है। मगर फ़तवा इन पर चुप है।
  • 2:190–193 (कर्तव्य): “…उनसे लड़ो जब तक फितना खत्म न हो जाए और दीन सिर्फ अल्लाह का न हो जाए…” यह आयत सामान्य संघर्ष के दौरान मौत को स्वीकार्य और “कर्तव्य” बताती है।
  • 4:74 (जन्नत का लालच): जो व्यक्ति आख़िरत को दुनिया पर तरजीह देता है, उसे अल्लाह जन्नत देगा… और जो अल्लाह की राह में मारा जाए, उसके लिए बड़ा इनाम है।”

अगर “अपनी जान लेना” हराम है, तो जान देकर जन्नत का वादा क्यों? 

यानी फतवा कह रहा है: “मत मरना।” कुरान कह रही है: “मरने में बड़ा फायदा है।” 

कुरान सही हुई या मुफ़्ती साहब?

आतंकवाद वाले हिस्से की कमजोरी: 8:60 की अनदेखी

फ़तवा कहता है: “वलीअल्लाह के नाम पर दहशतगर्दी नाजायज़ है।” लेकिन कुरान में “वलीअल्लाह” की कोई राजनीतिक/हमलावर परिभाषा नहीं है; यह इस्लामी सूफ़ी संप्रदाय का शब्द है, जिसे देओबंदी, सलफ़ी, अहले-हदीस नहीं मानते।

जहाँ तक बात आतंकवाद या ‘बिना वजह डर’ की है, कुरान 8:60 में मुसलमानों को कहा गया है:

  दुश्मनों में आतंक (terror) बैठाने के लिए ताकत जमा करो।” 

अरबी: تُرْهِبُونَ بِهِ عَدُوَّ اللَّهِ 

“आतंक (terror) बैठाओ।” तुर्हिबूना” का अर्थ ‘आतंक बिठाना’ classical dictionaries  (Lane, Lisan-ul-Arab) में documented है। इस फ़तवे में इसका कोई ज़िक्र नहीं।

जब कुरान खुद कह रहा है: आतंक (terror) पैदा करो,” तो फ़तवा कहता है: आतंक (terror) करना हराम।” 

यह तो गणित में “2+2= मंगल ग्रह” जैसा निष्कर्ष है।


5. हदीसों में आत्महत्या और शहादत का “थियोलॉजिकल लूपहोल”

फ़तवा ऐसी हदीसें लाता है जहाँ लिखा है खुदकुशी करने वाला जहन्नम जाएगा।” ठीक है, लेकिन हदीसें जो “जान देकर जन्नत” का वादा करती हैं, वे निम्नलिखित हैं:

  • सहीह बुखारी 2818: जन्नत तलवारों की छाया के नीचे है”
  • सहीह मुस्लिम 1909: सच्चे दिल से शहादत की इच्छा रखने वाले को भी शहीद का दर्जा मिलता है।” इस हदीस में मरने की इच्छा को धार्मिक गुण (virtue) की तरह पेश किया गया है, यही मानसिकता suicide bombing को theological back-door देती है।

इसका अर्थ यह है कि अगर कोई व्यक्ति अपने घर में ज़हर खाकर मर जाए तो वह जहन्नम जाएगा, मगर कोई आदमी जिहाद में जान देकर मरे तो वह जन्नत जाएगा, उसके सारे गुनाह माफ़ होंगे, और उसे सर्वोच्च दर्ज़ा मिलेगा।

यही theological loophole बाद में suicide bombing ideology का आधार बना: 

अगर तुमने खुद को मारा तो जहन्नम… लेकिन अगर अल्लाह के नाम पर हमला करते हुए खुद को उड़ाया, तो यह suicide नहींशहादत’ है।” 

यही तर्क हर जिहादी ग्रुप उपयोग करता है।

इस्लाम में: खुद जान देना = हराम, जबकि जिहाद में जान देना = सबसे बड़ा इनाम। 

अर्थात “Death is bad, unless we approve the format.” 

इस्लामी इतिहास में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं जहाँ मुसलमान खुद “जान देने” को सबसे बड़ी इबादत बताते आए हैं। मुहम्मद ने खुद कहा: मैं चाहता हूँ कि अल्लाह की राह में मारा जाऊँ, फिर जिंदा किया जाऊँ, फिर मारा जाऊँ—बार-बार।” (सहीह बुखारी 2796-97)

खारिजी, ग़ाज़ी, ग़ुलाम फौजें, सब “जान देने” के इरादे से भेजे जाते थे। अगर जान देना हराम होता तो पूरा इस्लामी इतिहास हराम से भरा हुआ कहलाता। 


6. निष्कर्ष: फ़तवा एक कॉस्मेटिक PR डॉक्यूमेंट है

“ऑल इंडिया फ़तवा बोर्ड” द्वारा जारी दस्तावेज़ एक तरह से इस्लामिक PR ब्रोशर है।

इसमें न तो फ़िक़्ह का गहरापन है, न संदर्भ की ईमानदारी है, न कुरानिक भाषाविज्ञान का ज्ञान है, और न ही परंपरागत इस्लामी संस्थाओं की वैधता है। और सबसे महत्वपूर्ण, इसमें उन आयतों का उल्लेख नहीं जिन्हें ISIS, अल-कायदा, तालिबान, हिज्बुल मुजाहिदीन भर्ती के लिए उपयोग करते हैं, क्योंकि उनका उल्लेख होते ही यह फ़तवा उसी पल ढह जाएगा।

एक तरफ जब कुरान जन्नत के बदले जान बेचने” का सौदा कर रही है, तब फ़तवा कह रहा है, अपनी जान की कीमत मत लगाओ।” जब हदीस कह रही है मरने की इच्छा रखना सवाब है”, तब फ़तवा बोल रहा है नियत में मौत का ख्याल भी हराम।” इस फतवे का उद्देश्य धार्मिक सिद्धांतों का स्पष्टीकरण नहीं, बल्कि समकालीन राजनीतिक परिस्थितियों में एक सुरक्षात्मक छवि-सुधार’ बनाना प्रतीत होता है।

अगर शहादत ने जन्नत का रास्ता खोल रखा है, तो फतवा किसके हक में वो दरवाज़ा बंद करने आया है, अल्लाह के या सरकार के?

“इसीलिए अपने अगले लेख में हम बताते हैं कि आतंकवाद की असली पैदाइश कहाँ है: क्लासिकल फ़िक़्ह में, जहाँ हिंसा को क्रूरता नहीं बल्कि अनिवार्य धार्मिक फ़र्ज़ बनाया गया है और इसी सच्चाई को ये फ़तवे सबसे ज़्यादा छिपाने की कोशिश करते हैं।”

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