
फ़िक़्ह के आईने में जिहाद की अनिवार्यता
“भारत सहित वैश्विक स्तर पर आतंकवाद पर होने वाली बहसें अक्सर ‘आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता’ कहकर मूल मुद्दे से हट जाती हैं, और पूरी चर्चा को केवल ‘चरमपंथी संगठनों’ या ‘व्यक्तिगत व्याख्याओं’ तक सीमित कर देती हैं।”
यह संकीर्ण दृष्टिकोण आतंकवाद की वैचारिक और धार्मिक-राजनीतिक जड़ों को समझने से रोकता है। हिंसा को धार्मिक कर्तव्य के रूप में प्रस्तुत करने वाली मानसिकता की जड़ें इस्लामी फ़िक़्ह (क्लासिकल इस्लामिक क़ानून) के उस मूल सिद्धांत में हैं जिसमें दुनिया को ‘दारुल-इस्लाम’ और ‘दारुल-हरब’ में बाँटा गया है। यह विभाजन केवल धार्मिक नहीं, बल्कि एक सुस्थापित राजनीतिक सिद्धांत है, जो हिंसक संघर्ष को ‘फ़र्ज़-ए-ऐन’ (व्यक्तिगत धार्मिक कर्तव्य) बनाकर जायज़ ठहराता है।
1. क्लासिकल फ़िक़्ह की नींव: दारुल-इस्लाम और दारुल-हरब का सिद्धांत
क्लासिकल इस्लामी न्यायशास्त्र (फ़िक़्ह) दुनिया को दो विरोधी क्षेत्रों में विभाजित करता है, जो जिहादी विचारधारा का मूल आधार है:
1.1 दारुल-इस्लाम (دار الإسلام)
यह शांति का क्षेत्र माना जाता है, जहाँ:
- इस्लामी शरिया लागू हो।
- मुस्लिम राजनीतिक सत्ता (Sovereignty) हो।
- इस्लामी क़ानून मूल आधार हो।
- प्रामाणिक संदर्भ: इसकी परिभाषा अल-मावर्दी की किताब अल-अहकाम अल-सुल्तानियाह (Al-Ahkam al-Sultaniyyah), हिदायह (Hidayah), और फतह अल-क़दीर (Fath al-Qadeer) जैसी क्लासिकल इस्लामी कानूनी किताबों में मिलती है।

1.2 दारुल-हरब (دار الحرب)
यह युद्ध का क्षेत्र माना जाता है, जहाँ:
- शरियत लागू न हो।
- गैर-मुस्लिम या “काफ़िर” सत्ता हो।
- शासन मानव-निर्मित कानून पर चले।
- न्यायविदों का मत: इमाम अबू हनीफा, इमाम शाफ़ई, और इब्न तैमिया जैसे प्रमुख न्यायविदों ने यह सिद्धांत दोहराया है।
- धार्मिक अनिवार्यता: क्लासिकल फ़िक़्ह के अनुसार, दारुल-हरब में इस्लामी शासन स्थापित करना “फ़र्ज़ अल-किफ़ाया” (सामुदायिक कर्तव्य) होता है, जो कुछ परिस्थितियों में “फ़र्ज़-ए-ऐन” (व्यक्तिगत कर्तव्य) बन सकता है।
1.3 दारुल-कुफ़्र और दारुल बग़ी
- दारुल-कुफ़्र (دار الكفر): यह गैर-इस्लामी, संवैधानिक देशों के लिए एक सामान्य शब्द है, जहाँ शरिया लागू नहीं होती। इमाम शाफ़ई और इब्न तैमिया इसे सीधे “कुफ़्र का कानून” कहते हैं।
- दारुल बग़ी (دار البغي): ऐसा क्षेत्र जहाँ मुसलमान शरिया से हटकर क़ानून बनाते हों (बग़ावत)। यह शब्द भी जिहादी नैरेटिव को गैर-इस्लामी शासकों के विरुद्ध हिंसा को वैध ठहराने के लिए उपयोग किया जाता है।
2. लोकतांत्रिक राष्ट्रों के लिए प्रयुक्त वैचारिक कोड: ताग़ूत और जाहिलिय्यह
फ़िक़्ह और आधुनिक जिहादी राजनीतिक साहित्य में, लोकतांत्रिक और संवैधानिक देशों को वैचारिक शत्रु घोषित करने के लिए विशेष तकनीकी शब्दों का प्रयोग किया जाता है:

2.1 ताग़ूत (طاغوت)
अर्थ एवं सन्दर्भ:
- ताग़ूत का शाब्दिक अर्थ है “अल्लाह के कानून से हटकर मनुष्य द्वारा बनाया गया कानून।” यह एक ऐसा सिद्धांत है जहाँ किसी व्यक्ति या व्यवस्था की सत्ता को माना जाता है जो अल्लाह के अलावा किसी और की सत्ता को स्थापित करती हो।
- क्लासिकल इस्लामिक टीका (Commentary) में, तफ़सीर इब्न कसीर (कुरान 4:60 की व्याख्या करते हुए) सीधे तौर पर लोकतंत्र, संसद, और मानव-निर्मित कानूनों को “ताग़ूत” कहती है।
आधुनिक उपयोग:
- ISIS, अल-कायदा, और मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे आधुनिक जिहादी और इस्लामी राजनीतिक समूह इस शब्द का प्रयोग लोकतांत्रिक राष्ट्र-राज्यों के विरोध में करते हैं, उन्हें ‘ताग़ूती शासन’ घोषित करते हुए। उनके अनुसार, ऐसे शासन को हटाना हर मुसलमान का धार्मिक कर्तव्य है।
2.2 हुक्म-ए-ग़ैरुल्लाह (حكم غير الله)
अर्थ एवं सन्दर्भ:
- हुक्म-ए-ग़ैरुल्लाह का अर्थ है “अल्लाह के बजाय इंसानों के बनाए कानून का शासन।” यह एक कानूनी और सैद्धांतिक शब्द है जो यहूदियों, ईसाइयों या किसी भी गैर-इस्लामिक शासन के कानून को संदर्भित करता है।
- क्लासिकल उसूले अल-फ़िक़्ह (इस्लामी न्यायशास्त्र के सिद्धांत) में इस तरह के मानव-निर्मित कानून को स्वीकार करना “कुफ़्र बव्वाह” (खुला कुफ़्र) माना गया है।
आधुनिक उपयोग:
- यह विचारधारा लोकतंत्र की वैधता पर सीधा हमला करती है। जिहादी समूह इसका उपयोग यह सिद्ध करने के लिए करते हैं कि चूंकि आधुनिक राष्ट्रों (जैसे भारत) का संविधान इंसानों द्वारा बनाया गया है, इसलिए वह खुला कुफ़्र है और उसे बदलने का प्रयास करना धार्मिक रूप से बाध्यकारी है।
2.3 जाहिलिय्यह (الجاهلية)
अर्थ एवं सन्दर्भ:
- जाहिलिय्यह का शाब्दिक अर्थ “अज्ञानता का युग” है, जो इस्लाम के आने से पहले अरब में प्रचलित था। यह शब्द मूल रूप से अनैतिक और बर्बर सामाजिक व्यवस्था को दर्शाता है।
- आधुनिक जिहादी विचारधारा के सबसे प्रभावशाली विचारक सैय्यद कुतुब ने अपनी पुस्तक Milestones में सभी आधुनिक राष्ट्र-राज्यों, उनकी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्थाओं को “नई जाहिलियत” कहकर खारिज किया।
आधुनिक उपयोग:
- इस वैचारिक कोड का निष्कर्ष यह है कि आधुनिक राष्ट्रों की “नई जाहिलियत” को हटाकर “हाकिमियत-ए-इलाही” (ईश्वर का शासन) लागू करना ही मुसलमानों का जिहादी कर्तव्य है। यह शब्द आधुनिक समाजों में संघर्ष और वैचारिक अलगाव को सही ठहराने का आधार बनता है।
निष्कर्ष: लोकतांत्रिक देशों में रहना अस्थायी रूप से वैध माना जाता है, पर उन देशों में शरिया लागू करना अंतिम राजनीतिक-धार्मिक लक्ष्य होता है।
3. दारुल-हरब को दारुल-इस्लाम बनाने का धार्मिक फ़र्ज़
उपरोक्त “ताग़ूती” क्षेत्रों को बदलने के लिए फ़िक़्ह में स्पष्ट शब्दावली है जो हिंसक संघर्ष को अनिवार्य बनाती है, दारुल-हरब (जहाँ शरिया लागू नहीं है) को दारुल-इस्लाम में बदलने के लिए फ़िक़्ह में कई अनिवार्य धार्मिक क्रियाएँ निर्धारित की गई हैं, जिन्हें जिहादी समूह हिंसा को जायज़ ठहराने के लिए प्रयोग करते हैं:

- जिहाद-ए-क़िताल (جهاد القتال): इसका अर्थ है शस्त्र उठाकर इस्लामी शासन स्थापित करना। इसका सीधा आधार कुरान की आयतों में मिलता है, जैसे कुरान 8:39 (“लड़ो जब तक दीन पूरा का पूरा अल्लाह का न हो जाए”) और कुरान 9:29 (“लड़ो उन लोगों से जो अल्लाह के कानून को नहीं मानते…”)।
- इकामत-ए-दीन (إقامة الدين): इसका उद्देश्य धर्म (शरिया) की स्थापना और उसे क़ायम करना है। यह सीधे कुरान 42:13 के सिद्धांत से लिया गया है और यह मुस्लिम ब्रदरहुड, जमात-ए-इस्लामी, और अल-क़ायद़ा जैसे सभी संगठनों का केंद्रीय नारा है।
- इज़ालत-ए-ताग़ूत (إزالة الطاغوت): यह एक तकनीकी जिहादी शब्द है जिसका अर्थ है ताग़ूती (गैर-इस्लामी) शासन को हटाना। यह आधुनिक आतंकवादी घोषणापत्रों का मूल लक्ष्य है, जहाँ लोकतंत्र को हटाकर हिंसक क्रांति को जायज़ ठहराया जाता है।
- तमकीन (تمكين): इसका अर्थ है इस्लामी शासन को स्थापित/मजबूत करना और सत्ता प्राप्त कर शरिया लागू करना। यह कुरान 22:41 (“जब हम उन्हें ज़मीन में सत्ता देते हैं, वे अल्लाह के कानून लागू करते हैं”) से प्रेरित एक वैचारिक चरण है।
- शहादत (شهادة): यह अल्लाह के कानून की स्थापना के लिए जान देना है। सहीह मुस्लिम की रिवायतें इसे “जन्नत का सीधा रास्ता” बताती हैं। हिजबुल्लाह, हमास, और ISIS जैसे समूह इसे “इस्तिशहाद” (शहादत की खोज) कहकर आत्मघाती हमलों को वैध ठहराते हैं।
4. कश्मीर संघर्ष और वैश्विक उदाहरण: धार्मिक सिद्धांत का परिणाम
आतंकवाद का धार्मिक पक्ष क्षेत्रीय और वैश्विक संघर्षों की प्रकृति को समझने में मदद करता है:
4.1 कश्मीर: ‘दारुल-इस्लाम की बहाली’
यदि कश्मीर की लड़ाई केवल “कश्मीरी पहचान” या “राजनीतिक शिकायत” पर आधारित होती, तो 1990 में कश्मीरी पंडितों का पूर्ण पलायन असंभव था।
- मूल कारण: पंडित न तो सत्ता में प्रतिस्पर्धी थे, न उद्योगपति; फिर भी उन्हें लक्ष्य बनाया गया क्योंकि वे गैर-मुस्लिम थे और उनकी उपस्थिति कश्मीर घाटी के ‘दारुल-इस्लाम’ सिद्धांत के लिए अस्वीकार्य थी (क्योंकि यह क्षेत्र सदियों तक मुस्लिम बहुल रहा)।
- यह संघर्ष भूमि, अर्थव्यवस्था या स्थानीय असंतोष से कहीं अधिक दारुल-इस्लाम सिद्धांत पर आधारित है, जहाँ भारतीय संविधान की तुलना शरिया से की जाती है और गैर-मुस्लिमों का बसना “काफ़िर कब्ज़ा” बताया जाता है।

4.2 वैश्विक संघर्ष
- फिलिस्तीन (हमास): हमास का घोषणापत्र स्पष्ट कहता है कि फिलिस्तीन एक “इस्लामी वक़्फ़” (धार्मिक संपत्ति) है जिसे क़यामत तक दारुल-इस्लाम रहना है। संघर्ष “राष्ट्रीय” नहीं, बल्कि “धार्मिक संपत्ति की रक्षा” माना गया है।
- सीरिया (ISIS): ISIS ने असद की हुकूमत को “ताग़ूती हुकूमत” घोषित किया और “खिलाफत” (खलीफा का शासन) की बहाली को लक्ष्य बनाया।
- नाइजीरिया (बोको हराम): बोको हराम का नाम ही है ‘पश्चिमी लोकतांत्रिक शिक्षा हराम है’, जो लोकतंत्र को कुफ़्र घोषित करने के सिद्धांत पर चलता है।
5. वैचारिक विरोधाभास और धार्मिक धमकी
5.1 लोकतांत्रिक देशों में ‘ताग़ूत’ को स्वीकार करने का विरोधाभास
आतंकवादी विचारधारा का सबसे बड़ा वैचारिक विरोधाभास (Hypocrisy) उन लोगों के व्यवहार में स्पष्ट होता है जो पश्चिमी देशों में शरण लेते हैं या रहते हैं, लेकिन उन्हीं पश्चिमी लोकतांत्रिक सिद्धांतों को ‘ताग़ूत’ कहकर खारिज करते हैं।
- विदेशी ‘दारुल-कुफ़्र’ में आराम: जो तत्व भारत, कश्मीर या असम में भारतीय संविधान (जो लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष है) को “ताग़ूत” (गैर-इस्लामी शासन) कहकर ख़ारिज करते हैं, वही लोग अमेरिका, कनाडा, जर्मनी, या ब्रिटेन जैसे देशों में सुखपूर्वक रहते हैं और उनकी नागरिकता लेते हैं। इन पश्चिमी देशों में भी मानव-निर्मित कानून, संसद और लोकतंत्र की वही व्यवस्था है जिसे वे भारत में इस्लाम के विरुद्ध मानते हैं।
- क्लासिकल फ़िक़्ह का बचाव: क्लासिकल फ़िक़्ह इस विरोधाभास का जवाब देने से बचने के लिए इन पश्चिमी देशों को “दारुल-अम्न” (अस्थायी सुरक्षा/शरण का क्षेत्र) की श्रेणी में डालकर चुप हो जाती है। यह परिभाषा समस्या को टालती है, सुलझाती नहीं। यह स्पष्ट करती है कि सुविधा के लिए वे ‘ताग़ूत’ के अधीन रह सकते हैं, लेकिन वैचारिक रूप से उसे खारिज करते हैं।

5.2 कश्मीर में भारतीय संविधान की अस्वीकृति का असली कारण
यह विरोधाभास तब और स्पष्ट होता है जब कश्मीर जैसे क्षेत्र में भारतीय संविधान की अस्वीकृति का कारण सिर्फ बहाना बनकर रह जाता है।
- संवैधानिक स्वीकृति का सवाल: भारत के अन्य सभी राज्यों में—जहाँ मुस्लिम आबादी निवास करती है—वहाँ डॉ. अंबेडकर का संविधान सहर्ष स्वीकार्य है और इसे सामाजिक न्याय के लिए एक उत्कृष्ट ढाँचा माना जाता है। फिर कश्मीर को भारतीय संविधान से क्या दिक्कत है?
- आर्थिक बहाने की निरर्थकता: यह तर्क देना कि “बाहरी लोगों के आने से हमारे संसाधनों पर कब्ज़ा हो जाएगा” एक निराधार बहाना है। देश के सभी नागरिकों को किसी भी राज्य में संपत्ति खरीदने, निवेश करने और उद्योग लगाने का संवैधानिक अधिकार है। कोई भी पूंजीपति या उद्योगपति (चाहे वह अडानी हो या अम्बानी) किसी की ज़मीन या संपत्ति जबरदस्ती नहीं छीनता, बल्कि वह बाज़ार मूल्य पर खरीदता है। यदि ऐसा होता तो देश के अन्य राज्यों में भी बड़े औद्योगिक निवेश के कारण स्थानीय लोगों की ज़मीनें कब्जा हो चुकी होतीं।
- मूल वैचारिक आधार: यह अस्वीकृति असल में आर्थिक या राजनीतिक नहीं, बल्कि धार्मिक-राजनीतिक है। भारत के अन्य राज्यों में मुसलमानों का बसना जायज़ माना जाता है, लेकिन कश्मीर में किसी गैर-मुस्लिम का बसना “दारुल-इस्लाम में घुसपैठ” कहलाता है। यह संघर्ष ‘दारुल-इस्लाम’ के सिद्धांत पर आधारित है, जहाँ गैर-मुस्लिमों की घुसपैठ या बराबरी के नागरिक के रूप में रहना इस्लामी धार्मिक-राजनीतिक व्यवस्था के लिए खतरा माना जाता है।
5.3 जहन्नम का भय: आतंकवाद की अंतिम धार्मिक प्रेरणा
आतंकवाद को बढ़ावा देने वाली मानसिकता के केंद्र में आख़िरत (परलोक) की सज़ा का गहरा भावनात्मक-धार्मिक दबाव है, जो निष्क्रियता को सबसे बड़ा पाप घोषित करता है।

- फ़िक़्ह का स्पष्टीकरण: क्लासिकल फ़िक़्ह स्पष्ट करती है कि यदि कोई मुसलमान दारुल-इस्लाम की रक्षा या उसकी बहाली के लिए जिहाद नहीं करता है (यानी शरई फ़र्ज़ पूरा नहीं करता है), तो उसका परिणाम भयानक होगा।
- कब्र का हिसाब: उसे क़ब्र में फ़रिश्तों को जवाब देना होगा कि उसने अल्लाह के रास्ते में क्या किया। यदि उसने जिहाद में योगदान नहीं दिया, तो उसे जहन्नम (नरक) मिलेगा।
- उदाहरण के माध्यम से भावनात्मक दबाव: यह धार्मिक धमकी युवा मुस्लिमों पर एक अंतिम भावनात्मक दबाव डालती है। उन्हें यह बताया जाता है कि यदि वे दुनिया में मारे गए, तो उन्हें जन्नत का इनाम मिलेगा, लेकिन यदि वे निष्क्रिय रहे तो उन्हें जहन्नम की अनंत सज़ा मिलेगी। यह निष्क्रियता के भय से युवाओं को हिंसक कार्रवाई (शरई फ़र्ज़) की ओर धकेलता है।
भारत में जारी फ़तवे इसी केंद्रीय धार्मिक-भावनात्मक दबाव पर पूरी तरह मौन रहते हैं, जिससे वे आतंकवाद के वास्तविक वैचारिक कारण को बिल्कुल नहीं छू पाते।
6. निष्कर्ष: संकट की वैचारिक जड़
यह संकट न तो केवल राजनीतिक है और न ही केवल आर्थिक। यह इस्लामी राजनीतिक सिद्धांत का सीधा परिणाम है। भारत में जारी फ़तवे इस केंद्रीय धार्मिक-राजनीतिक सिद्धांत पर पूरी तरह मौन हैं।
संक्षेप में, इस्लामी राजनीतिक सिद्धांत के अनुसार:
- जो क्षेत्र दारुल-इस्लाम रहा, वह शरिया के बिना नहीं रह सकता।
- गैर-इस्लामी कानून “ताग़ूत” है।
- उसको हटाकर दारुल-इस्लाम पुनर्स्थापित करना धार्मिक फ़र्ज़ (शरई फ़र्ज़) है।
- जो यह फ़र्ज़ नहीं निभाएगा, वह आख़िरत में सज़ा पाएगा।
जब तक इन सिद्धांतों पर खुले रूप में और अकादमिक स्तर पर बहस नहीं होगी, फतवे चाहे कितने भी “अहिंसावादी” प्रतीत हों, वे आतंकवाद के मूल, “दारुल-इस्लाम बनाम दारुल-हरब” की वैचारिक लड़ाई को कभी नहीं छू पाएँगे।
यही कारण है कि अगले लेख में हमने दिखाया कि हिंसा सिर्फ एक अत्याचार नहीं, बल्कि क्लासिकल फ़िक़्ह में एक धार्मिक फ़र्ज़ के रूप में दर्ज है, और इसी फ़र्ज़ को छिपाने का प्रयास फतवे करते हैं।
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