
रसूल की बात न मानने पर सज़ा और उसका आधुनिक प्रयोग
1) प्रस्तावना: आयत और उसका परिप्रेक्ष्य
क़ुरआन की सूरह अल-मायदा (5:33) में कहा गया है:
إِنَّمَا جَزَاءُ ٱلَّذِينَ يُحَارِبُونَ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُ وَيَسْعَوْنَ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَسَادٗا أَن يُقَتَّلُوٓا أَوۡ يُصَلَّبُوٓا أَوۡ تُقَطَّعَ أَيۡدِيهِمۡ وَأَرۡجُلُهُم مِّنۡ خِلَٰفٍ أَوۡ يُنفَوۡا مِنَ ٱلۡأَرۡضِ…
अनुवाद:
“जो लोग अल्लाह और उसके रसूल से युद्ध करते हैं और धरती में फ़साद फैलाते हैं — उनकी सज़ा यही है कि उन्हें कत्ल कर दिया जाए, या सूली पर चढ़ा दिया जाए, या उनके हाथ-पाँव काट दिए जाएँ (उलटे), या उन्हें देश से निकाल दिया जाए…”
अरबी शब्द: محاربة (muhāraba / muḥāraba / moharebeh) — शाब्दिक अर्थ: “लड़ना, युद्ध करना”।
लेकिन असली सवाल यह है:
- अल्लाह से कौन लड़ सकता है?
- अल्लाह की इच्छा या आज्ञा किसके माध्यम से प्रकट होती है?
उत्तर साफ़ है — यह अधिकार रसूल के पास है। यानी रसूल की बात न मानना ही “अल्लाह से युद्ध” ठहराया गया। परिणाम: जो भी रसूल की आज्ञा को चुनौती दे, उसे “फ़साद-फ़िल-अर्ज़” (पृथ्वी पर अराजकता फैलाना) कहकर चार प्रकार की सजाएँ वैध मानी गईं — मौत, सूली, अंग-भंग, या निर्वासन।
2) शरीयत और फिक़्ह में व्याख्या
- हनफ़ी फिक़्ह: मोहारेबेह का प्रयोग डकैती, राज्य-विरोधी विद्रोह और धार्मिक शासन को चुनौती देने वालों के लिए।
- शाफ़ी और हनबली फिक़्ह: परिभाषा और भी व्यापक — राज्य की सुरक्षा या धार्मिक शासक के खिलाफ कोई भी गंभीर अपराध इस श्रेणी में।
- क़ाज़ी की शक्ति: अपराध का निर्धारण और उचित सज़ा पूरी तरह न्यायाधीश पर निर्भर।

आलोचनात्मक प्रश्न:
क्या यह व्याख्या वास्तव में “रसूल की बात न मानने” को सीधे राजनीतिक शासन से जोड़ देती है?
अगर हाँ, तो क्या हर असहमति या आलोचना को आसानी से मोहारेबेह करार देकर मौत या अंग-भंग की सज़ा दी जा सकती है?
इस तरह प्रस्तावना और फिक़्ह का हिस्सा पाठक के मन में यह झटका पैदा करता है कि धार्मिक ग्रंथ की यह आयत केवल ऐतिहासिक घटना भर नहीं बल्कि एक ऐसा कानूनी औज़ार है, जिसे किसी भी असहमति को कुचलने में इस्तेमाल किया जा सकता है।
3) आधुनिक मुस्लिम राज्यों में कानूनी स्थिति
ईरान (Islamic Penal Code, 2013 संशोधन)
- अनुच्छेद 279–284: “मोहारेबेह” = हथियार उठाकर डराना, हत्या, दंगे या राज्य-विरोधी विद्रोह।
- सज़ाएँ: फाँसी, सूली, उलटी दिशा से हाथ-पाँव काटना (क्रॉस-अम्प्यूटेशन), निर्वासन।
- नोट: यहाँ “मोहारेबेह” अक्सर राजनीतिक असहमति को दबाने का उपकरण बन जाता है।
सऊदी अरब
- “हिराबा” (حرابة) शब्द का प्रयोग; आतंकवाद, विद्रोह और राज्य-विरोध पर लागू।
- 2016: शिया धर्मगुरु शेख निम्र अल-निम्र को इसी कानून के तहत मौत दी गई।
सूडान, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान (तालिबान काल)
- क़ानूनों में हिराबा/मोहारेबेह शब्द शामिल।
- दंड कठोर और शरीयत-आधारित: फाँसी, अंग-भंग, निर्वासन।
- तालिबान ने चोरी/डकैती पर खुलेआम हाथ-पाँव काटने की सज़ाएँ दीं।
4) चर्चित केस-हिस्ट्री (सत्यापित उदाहरण)

ईरान
- मोहसिन शेकारी (2022): सुरक्षा बल पर हमले का आरोप → फाँसी। अमनेस्टी और UN: “नकली ट्रायल।”
- मजीदरेज़ा रहनावर्द (2022): बसीज मिलिशिया पर हमला → सार्वजनिक फाँसी। सिर्फ कुछ ही महीनों के ट्रायल में।
- हामेद नूर (2023): विरोध प्रदर्शनों में भागीदारी = “फसाद-फ़िल-अर्ज़” → मौत।
- सईद मलक़ी (2019): “आर्थिक भ्रष्टाचार” को मोहारेबेह करार → फाँसी।
- 2024–25 विरोध: तीन युवाओं को “मोहारेबेह” और “फसाद-फ़िल-अर्ज़” में मौत की सज़ा (HRW रिपोर्ट)।
सऊदी अरब
- शेख निम्र अल-निम्र (2016): सरकार-विरोधी भाषण व विद्रोह का आरोप → फाँसी।
- अली मोहम्मद बाक़िर अल-निम्र (2012–2020 मामला): नाबालिग होते हुए प्रदर्शन में शामिल → मौत की सज़ा, बाद में उम्रकैद।
सूडान
- अब्दुल करीम हुसैन (2014): सरकारी बलों पर हमला → मौत (हिराबा कानून)।

अफ़ग़ानिस्तान (तालिबान, 1990s)
- चोरी/डकैती → हाथ-पाँव काटने की सज़ा।
पाकिस्तान
- मोहम्मद इस्माईल (1990s): डकैती का मामला → अदालत ने हाथ-पाँव काटने का आदेश दिया, बाद में पलटा।
इन केस-हिस्ट्री से साफ़ दिखता है कि “मोहारेबेह/हिराबा” का इस्तेमाल सिर्फ़ असली अपराधियों पर नहीं, बल्कि राजनीतिक असहमति, आर्थिक मामलों, यहाँ तक कि प्रदर्शनकारियों पर भी किया गया। सूची अनंत है और हर नया विरोध या आंदोलन इसी “कानून” की तलवार के नीचे आ जाता है।
5) आलोचनात्मक दृष्टि: मोहारेबेह आज भी राजनीतिक हथियार?
आलोचकों का तर्क है कि मोहारेबेह की परिभाषा इतनी व्यापक है कि किसी भी असहमति, नारेबाज़ी या प्रदर्शन को सीधे “अल्लाह-रसूल से युद्ध” बना दिया जाता है।
उदाहरण: ईरान में 2022–23 के प्रदर्शनों के दौरान सैकड़ों लोगों पर यही आरोप लगाया गया।
नतीजा: अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि यह कानून राजनीतिक असहमति को अपराध बनाने का औज़ार है।
6) भारत के संदर्भ में तुलना

आम तौर पर हर उस देश में, जहाँ मुस्लिम संवैधानिक अधिकार रखते हैं, वहाँ वे प्रायः यह आरोप लगाते हैं कि उनके साथ अन्याय हो रहा है। लेकिन इस तरह की बातें इस्लामी शरीयत वाले देशों से शायद ही सुनाई देती हैं, क्योंकि वहाँ आवाज़ उठाने पर धार्मिक पाबंदी है।
भारत में उदाहरण:
कई आलोचक और राजनीतिक समर्थक कहते हैं कि कुछ गिरफ्तार कार्यकर्ता-नेताओं को केवल “मुसलमान होने” या सरकार के हिंदुत्व रुख की वजह से दंडित किया जा रहा है। उदाहरण के तौर पर:
- उमर खालिद — 2020 की गिरफ्तारी (UAPA आदि); जाँच और मुकदमे में लंबे समय तक बिन्दु बने रहे। (USCIRF / Guardian)
- शरजील इमाम — 2020 दिल्ली घटनाओं से जुड़े आरोप; अदालत में चार्ज फ्रेमिंग और लंबी कस्टडी। (NDTV, India Today)
- सफूरा ज़रगर — CAA–NRC विरोधों के दौरान गिरफ्तार; UAPA के आरोप; गर्भवती होने पर भी हिरासत बनी रही। (Wikipedia / National Herald)
बहस का बिंदु:
कहा जाता है कि इन लोगों को सिर्फ़ “मुसलमान होने” की वजह से सज़ा मिल रही है। जबकि वास्तविकता यह है कि —
- चार्जशीट 2021 में ही दाख़िल हो चुकी है,
- मुकदमा शुरू न हो पाने का कारण यह है कि बचाव पक्ष ज़्यादा ध्यान जमानत अर्ज़ियों पर केंद्रित कर रहा है।

महत्वपूर्ण प्रश्न:
अगर यही लोग किसी शरीयती देश (ईरान/सऊदी) में सरकार का विरोध करते, तो उन पर मोहारेबेह या फ़साद-फ़िल-अर्ज़ का आरोप लगता — और नतीजा सीधा फाँसी या हाथ-पाँव काटने की सज़ा होती।
यानी, शरीयत के देशों में आप यह “victim card” नहीं खेल सकते कि मुसलमान होने की वजह से आपको सज़ा मिल रही है।
7) क्या यह “कितमान” नहीं?
आज जो लोग कहते हैं —
“ये आयतें उस समय के लिए थीं, आज लागू नहीं” —
तो सवाल उठता है: क्या यही तर्क कल को बाल-विवाह या ग़ुलामी को भी जायज़ ठहराने में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता, अगर शरीयत लागू कर दी जाए?
प्रश्न:
- अगर 5:33 केवल “ऐतिहासिक सज़ा” थी, तो आज भी ईरान, सऊदी और अन्य शरीयत मानने वाले देश इसे क्यों लागू कर रहे हैं?
- अगर ग़ुलामी “इतिहास” थी, तो शरीयत की किताबों में उसकी दलील आज भी क्यों मौजूद है?
- क्या यह असली कितमान नहीं कि कठोर हिस्सों को “समय-सापेक्ष” कहकर टाल दिया जाए, लेकिन जब राजनीतिक फ़ायदा हो तो उसी शरीयत का उपयोग किया जाए?

8) निष्कर्ष (सवाल के रूप में)
- क्या मोहारेबेह जैसी धाराएँ असहमति को सीधे धार्मिक अपराध बना देती हैं?
- क्या कुरान की यह आयत आज भी राजनीतिक दमन का ज़िंदा हथियार है?
- और भारत जैसे संवैधानिक देश में — क्या मुस्लिम एक्टिविस्ट वास्तव में सौभाग्यशाली नहीं हैं कि यहाँ शरीयत नहीं, बल्कि नागरिक कानून लागू हैं?
सोचिए:
जो लोग आज शरीयत को “आदर्श” बताकर यह सपना देखते हैं कि एक दिन भारत इस्लामी मुल्क बनेगा, क्या वे जानते भी हैं कि जिस आज़ादी से वे आज आवाज़ उठा रहे हैं — शरीयत लागू होने पर वे अपने ऊपर हुए अन्याय को बयान तक नहीं कर पाएँगे।
हमारे साथ जानिए: शरीयत के अन्य कठोर कानून → [LINK]
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