
कुरान और हदीस से उभरता नंगा सच
प्रस्तावना
ज़रा सोचिए…
एक ओर वह छवि खड़ी है जो हमें बार-बार सुनाई देती है—
“मोहम्मद, रहमतुल-लिल-आलमीन, यानी सारी सृष्टि के लिए दया।”
लेकिन दूसरी ओर, जब हम इस्लाम की अपनी किताबें—कुरान, हदीस और इतिहास—खोलते हैं, तो एक बिल्कुल अलग तस्वीर सामने आती है।
पिछले लेख में हमने देखा कि किस तरह हमारे दिल का ईश्वर—हमारा अल्लाह—उनकी किताबों से मेल नहीं खा रहा ([लेख का लिंक])।
आइए अब उन्हीं किताबों की रोशनी में देखें कि क्या हमारे रसूल वैसे ही हैं जैसे हमें बताया गया है, या वैसे जैसे इस्लामी ग्रंथों में लिखे गए हैं।
प्रश्न उठता है:
क्या मोहम्मद सचमुच “दया के पैग़ंबर” थे?
या फिर तलवार और छल का प्रतीक?
आइए चलते हैं उसी रेगिस्तान की ओर, जहाँ इस्लाम की नींव रखी गई—और देखते हैं अल्लाह के रसूल का असली चेहरा कुरान और हदीस की रोशनी में।
नोट: अगर आप की भावनाएं जल्दी आहत हो जाती हैं, तो पहले [भावना आहत] पढ़ें।
1. तलवार का कलमा: “मानो, या मर जाओ”
अरब की रेत पर तलवारें पहले ही खिंच चुकी थीं।
मोहम्मद ने एलान किया:
“मुझे आदेश दिया गया है कि मैं लोगों से तब तक लड़ूँ जब तक वे गवाही न दें कि अल्लाह के सिवा कोई पूजनीय नहीं।”
(सहीह बुखारी 2946; सहीह मुस्लिम 21A)

जिन्होंने गवाही दी—वे बच गए।
जिन्होंने इंकार किया—उनकी गर्दनें गिरा दी गईं।
तो क्या यह दया थी?
या फिर मौत और डर के साए में फैलाया गया धर्म?
“इस्लाम शांति का मज़हब है”—यह कहना, इतिहास और मोहम्मद के अपने आदेशों के साथ धोखा करना है।
2. मूर्तिपूजकों से नफ़रत और नरसंहार
कुरान ने मूर्तिपूजकों के बारे में साफ़ फ़ैसला सुना दिया:
“निस्संदेह, अल-मुश्रिकून (मूर्तिपूजक) नजस (गंदगी, मल-मूत्र जैसे अपवित्र) हैं।”
(कुरान 9:28)

“जब हराम महीने बीत जाएँ, तो उन्हें जहाँ पाओ, घात लगाओ, कत्ल करो।”
(कुरान 9:5 – आयत-ए-सैफ़)
नतीजा यह हुआ कि काबा की मूर्तियाँ तोड़ी गईं, मंदिर ढहा दिए गए, और उनके मानने वालों का ख़ून बहा।
तो सवाल है—
कौन सा “रहमतुल-लिल-आलमीन” ऐसा प्रेम सिखाता है, जिसमें “ईश्वर” के नाम पर कत्लेआम हो?
3. छल से भरे युद्ध: वीरता या दबिश?
इस्लाम दावा करता है कि मोहम्मद बहादुर योद्धा थे।
लेकिन उनके हमलों का समय, तरीका और लक्ष्य—कुछ और ही कहानी कहते हैं।
सुबह का सन्नाटा था।
बनू मुस्तलिक अपने ऊँटों को पानी पिला रहे थे। तभी तलवारें चमकीं—और हमला हो गया।
“हमने सुबह हमला किया जब लोग बेख़बर थे।”
(सहीह बुखारी 2541)

“हमने सुबह हमला किया जब लोग अपने जानवरों को पानी पिला रहे थे।”
(सहीह बुखारी 371 – जंग-ए-ख़ैबर)
“बनू मुस्तलिक को अंदाज़ा तक नहीं था कि उन पर हमला होने वाला है।”
(बुलूग अल मराम, जिहाद 11:10)
हुनैन की जंग में भी यही हुआ।
मोहम्मद ने अवतास पर फौज भेजी—रात के अंधेरे में, छिपकर, अचानक हमला करने के लिए। और जब औरतें बंदी बनाई गईं, तो अल्लाह ने आयत उतारी:
“बंदी बनाई गई औरतें तुम्हारे लिए हलाल हैं।”
(सूरह अन-निसा 4:24; सुनन अबू दाऊद 2155)

यानी युद्धबंदियों का जबरन उपभोग भी जायज़ ठहरा दिया गया।
तो सवाल यह है—
क्या यह बहादुरी थी जिसमें सोते-जागते दुश्मन को दबोच लिया जाए?
क्या यह सच्चा जिहाद था—या संगठित लूट और हवस?
4. लूट, हवस और औरतों का सौदा
तबूक की ओर कूच शुरू हुआ। सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए मोहम्मद ने धर्म या न्याय की बात नहीं की—बल्कि गोरी औरतों का लालच दिया:
“तबूक जाओ—वहाँ तुम्हें अल-असफ़ार (गोरे-चिट्टे रोमी औरतें) मिलेंगी।”
(तफ़सीर इब्न कसीर, कुरान 9:49; तारीख़ अल-रुसूल वॉल्यूम 9, पृ. 91; अल-तबरी 9:49)

“अल-असफ़ार” यानी “पीली/सुनहरी त्वचा वाली”—बिज़न्टाइन (रोमी) औरतें।
क्या यह “पवित्र जिहाद” था—या गोरी औरतों की बोली लगाकर बुलाया गया हमला?
छापे और क़ाफ़िलों की लूट
मोहम्मद और उनके साथियों का अगला निशाना बने व्यापारिक क़ाफ़िले।
- बुवात पर छापा — कुरैश क़ाफ़िला लूटने की कोशिश।
- अल-उशैरा पर छापा — कुरैश क़ाफ़िला निशाना।
- सफ़वान पर हमला।
- अल-ख़रार पर छापा — अबू सुफ़यान का क़ाफ़िला लूटने का प्रयास।
“ग़नीमत का माल तुम्हारे लिए हलाल और अच्छा है।” (कुरान 8:69)
“ग़नीमत का पाँचवाँ हिस्सा मोहम्मद का है।” (कुरान 8:41)
इब्न हिशाम (पृ. 281–283) साफ़ लिखते हैं कि मोहम्मद ने कुरैश के क़ाफ़िलों पर बार-बार हमला किया और उनका माल हड़प लिया।
बद्र की जंग (624 ई.)
मौलवी दावा करते हैं कि मक्कावाले आक्रामक थे।
लेकिन हक़ीक़त यह थी—मोहम्मद 313 आदमियों के साथ निकले थे अबू सुफ़यान का क़ाफ़िला लूटने।
मक्कावाले तो बस अपने व्यापार और जीवन की रक्षा कर रहे थे।

सवाल यह है—
व्यापारियों को लूटना और फिर उन्हीं को “आक्रामक” ठहराना, क्या यही किसी नबी की पहचान है?
क्या यह धार्मिक आदर्श था—या डकैतों का गिरोह?
5. मासूमों को मारने का हुक्म
एक भयावह आदेश सामने आता है:
Abu Dawud 4404“अगर उसमें जघन के बाल आ गए हों—तो उसे क़त्ल कर दो।”
(अबू दाऊद 4404)
सिर्फ़ शरीर पर बाल आने के आधार पर बच्चों को मार डालना?
और जब रात के हमलों में औरतें और बच्चे मारे गए, तो पूछा गया—क्या यह जायज़ है?
मोहम्मद ने कहा:
Sahih Bukhari 3012“वे (ग़ैर-मुस्लिम) उन्हीं में से हैं।”
(सहीह बुखारी 3012; मुस्लिम 1745b)
कौन सा “दया का पैग़ंबर” बच्चों के क़त्ल को वैध ठहराता है?
क्या वह रात में हमले रोक नहीं सकता था?
यह “रहमत-लिल-आलमीन” था—या फिर एक ऐसा नेता जो मासूम बच्चों तक पर रहम न कर सका?
6. मोहम्मद और औरतें: करुणा या हवस?
मदीना के बाज़ार में एक औरत गुज़री। मोहम्मद ने उसे देखा और उनकी वासना भड़क उठी।
वह तुरंत अपनी पत्नी ज़ैनब के पास गए और इच्छा पूरी की।
(सहीह मुस्लिम 1403)

हदीसें और गवाही देती हैं:
“वे एक ही रात में अपनी सभी बीवियों के पास जाते थे।” (बुखारी 268)
“उनमें तीस आदमियों की ताक़त थी।” (बुखारी 268)
“चार बीवियाँ, और जितनी चाहे कनीज़ें।” (कुरान 33:50)
सवाल यह है—
क्या यह दिव्य चरित्र था?
या बेकाबू वासना?
7. पैग़ंबर और नन्हीं बच्चियाँ
एक शिशु—अब्बास की बेटी—अभी दूध पी रही थी। मोहम्मद ने उसे देखा और कहा:
“अगर यह बड़ी हुई और मैं ज़िंदा रहा, तो मैं इससे शादी करूँगा।”
(इब्न इसहाक़, पृ. 311; मुस्नद अहमद 25636/26870; मुस्नद अबू याला; अल-कबीर, अल-तबरी)
एक दूध पीती बच्ची को देखकर निकाह की बात करना—क्या यह हवस नहीं? क्या यह विकृति नहीं?

और फिर आएशा—छः साल की उम्र में निकाह, नौ साल की उम्र में सहवास।
(बुखारी 5133)
क्या यह रहमत थी—या वासना की पराकाष्ठा?
8. हत्या, ग़ुलामी और व्यापार
युद्ध के बाद ज़मीन पर खून बिखरता और ग़ुलामों के बाज़ार सजते।
“किसी नबी के लिए यह उचित नहीं कि उसके पास क़ैदी हों—जब तक वह धरती पर ख़ून न बहाए।”
(कुरान 8:67)
ग़ुलामी बिना नरसंहार के संभव ही नहीं। यह कैसी “दिव्य नैतिकता” है?

“पहले कत्लेआम करो—फिर ग़ुलाम बनाओ।” क्या यह उपदेश था—या लूट का धंधा?
इतिहास कहता है—
मोहम्मद के पास 50 से अधिक औरतें (कनीज़ें) और लगभग उतने ही मर्द ग़ुलाम थे।
(इब्न हिशाम, सीरत-रसूल; तारीख़ अल-तबरी, खंड 8)
क्या ईश्वर का सच्चा पैग़ंबर हत्यारा हो सकता है—जो जंग रक्षा के लिए नहीं, बल्कि लूट के लिए लड़े?
औरतें: सौदे, हवस और बाज़ार की वस्तु
मोहम्मद ने औरतों को सिर्फ़ भोग की वस्तु नहीं बनाया, बल्कि उन्हें खुलेआम खरीदा-बेचा—जैसे कोई तस्क़र, न कि नबी।
“मोहम्मद ने ग़ुलाम औरतें बेचीं।” (सहीह बुखारी 3:34:351)
“उन्होंने अपने बच्चों की माएँ तक बेच डालीं।” (सुन्नन इब्न माजह 2517)
क्या यह पैग़ंबराना आचरण था?
अज़ल (coitus interruptus):
गर्भवती कनीज़ें सस्ती बिकती थीं। इसलिए:

“हम उनसे संभोग करते थे, लेकिन अज़ल करते ताकि वे गर्भवती न हों।”
(सहीह बुखारी 2229, 7409)
उनके जिस्म से खेलो, लेकिन माँ मत बनने दो—ताकि वे बाज़ार में बिकती रहें।
यह शोषण की सबसे घिनौनी मिसाल नहीं तो और क्या है?
ग़ुलामों के बदले हथियार
“मोहम्मद ने नज्द के बाज़ारों में बंदी औरतें बेचीं—और उनसे हथियार व घोड़े ख़रीदे।”
(अल-तबरी, खंड 2, भाग 1 – बनू क़ुरैज़ा का विवरण)
क्या ईश्वर का संदेशवाहक इंसानों की ख़रीद-फ़रोख़्त को जायज़ ठहरा सकता है?
अगर हाँ—तो क्या यह खुद ईश्वर का अपमान नहीं, और इंसानियत का मज़ाक नहीं?
तो सवाल वही है—
क्या वे सचमुच पैग़ंबर थे—या औरतों और दौलत के सौदागर?
क्या ऐसी शख़्सियत को “रहमत-लिल-आलमीन” कहा जा सकता है?
9. करामात कहाँ थीं?
मदीना की गलियों में अफ़वाह फैली:
“मोहम्मद पर जादू कर दिया गया है।”
लोग कहते—उन्हें याद नहीं रहता था कि उन्होंने क्या किया, या कहाँ गए।
(बुखारी 5765; मुस्लिम 2188)

क्या यह “करामाती पैग़ंबर” का लक्षण है—जो दूसरों को ठीक करने का दावा करे, पर खुद जादू का शिकार हो?
फिर आया उहुद का मैदान।
साथी भाग खड़े हुए।
उनके दाँत टूटे, चेहरा लहूलुहान हुआ, और हार मिली।
(बुखारी 2911)
अगर सचमुच फ़रिश्ते मदद को आते—तो यह अपमान क्यों?
और आखिरकार—अंत।
ना तो जंग में, ना ही किसी आसमानी ग़ज़ब से—
बल्कि एक यहूदी औरत के दिए ज़हर से मौत।
(बुखारी 4428)
क्या यह ईश्वर की शक्ति से भरपूर नबी की मौत थी—या बस एक साधारण इंसान की?
“करामाती पैग़ंबर”—जो जादू, ज़हर और जंग—सबमें हार गए?
10. आलोचना की सज़ा: “सर तन से जुदा”
इस्लाम में सबसे बड़ा गुनाह—आलोचना।

काब बिन अशरफ़—एक शायर, जिसने बस व्यंग्य लिखा।
असमा बिन्त मरवान—एक औरत, जिसने कुछ पंक्तियाँ लिखीं।
दोनों का अंजाम एक ही—तलवार से मौत।
रसूल: ‘दया का प्रतीक’ या क्रूर नायक?
मोहम्मद को “रहमतुल्लिल-आलमीन” यानी “सभी के लिए दया” कहा जाता है, लेकिन उनके कर्म?
- काफिरों की गर्दन उड़ाने का आदेश: कुरआन 47:4
- सफिया के पति की हत्या कर उसे बलपूर्वक ब्याहना: ख़ैबर के युद्ध में रसूल ने सफ़िया के पति की हत्या करवाई, फिर उसी रात उसे ‘लौंडी’ बना कर अपने पास रखा और निकाह कर लिया — सही बुखारी 2235, 947, 4211 अधिक जानकारी के लिए हमारा इस्लामी गुलामी लेख पढ़ें, जिसमें सफ़िय्या का प्रसंग विस्तार से दिया गया है।
- 90 साल के यहूदी कवि कब बिन अशरफ़ की हत्या करवाना: हदीस
- ऊंट चुराने वाले व्यापारियों को तड़पा कर मारा, हाथ काटे, पैर काटे, आंखों में गर्म सलाखें डालीं, सही बुखारी 5686, सही मुस्लिम 1671A (सीधे मृत्युदंड भी दे सकते थे), यह घटना कुरआन 5:33 की क्रूर सज़ा का अमल था — “जो अल्लाह और उसके रसूल से युद्ध करें…” उन्हें “सूली पर चढ़ाया जाए, या हाथ-पैर विपरीत दिशा में काट दिए जाएँ..
क्या यह ‘दया’ के प्रतीक हैं? या युद्धनायक, जो अपने धर्म के लिए हिंसा को जरूरी मानते हैं?
क्या यह “रहमतुल-लिल-आलमीन” की परिभाषा है—या दहशत की नींव?
क्या यह धार्मिक सहिष्णुता थी—या आतंकवाद का आरंभ?
निष्कर्ष
निष्कर्ष या सवाल?
अब सवाल आपके सामने है—
- क्या ये वही नबी हैं जिन्हें “रहमत-लिल-आलमीन” कहा जाता है?
- या फिर सिर्फ़ एक विजेता—जिसने तलवार, हवस और व्यापार से सत्ता बनाई?
इस्लामी किताबें खुद गवाही देती हैं, लेकिन पढ़कर सवाल उठता है:
- क्या मोहम्मद सचमुच करुणा का प्रतीक थे?
- या फिर इतिहास का एक बड़ा छल?
तो फ़ैसला आपका है—
मुझे गुस्ताख़ कहने और फ़तवा लगाने से पहले,
मेरे दिए सबूत पढ़िए, परखिए,
और अपने अंदर के इंसान से पूछिए:
क्या मेरे सवाल वाजिब नहीं?
क्योंकि इस्लामी स्रोत खुद पढ़ने पर यह सवाल खड़ा करते हैं—
- मोहम्मद एक सच्चे पैग़ंबर थे?
- या फिर धर्म की आड़ में सत्ता और दौलत जुटाने वाले एक व्यक्ति?

आत्ममंथन कीजिए और बताइए—
क्या किताब का नबी वैसा ही है जैसा आप एक मानवीय मूल्यों वाले इंसान को जानते थे?
उसवतुन हसना यानी रोल मॉडल,
रहमतुल-लिल-आलमीन यानी सबके लिए रहमत,
इंसानियत की बात करने वाला?
या फिर कूड़ा फेंकने वाली बुढ़िया की न मिलने वाली हदीस जैसा मासूम इंसान?
बेहतर तो यही होगा कि आप मानिए:
“समय के साथ किताबों में बदलाव हुआ, और कुरान-हदीस से वही लीजिए जैसा आपके दिल में बसे नबी का स्वरूप है।
बाकी को सत्ता के लालची लोगों के अपने फायदे के लिए गढ़ी बातें समझ कर छोड़ दीजिए।”
इस लेख में हमने कोई स्वतंत्र दावा नहीं किया है। जो भी प्रश्न यहाँ उठाए गए हैं, वे उन्हीं इस्लामी ग्रंथों और हदीस-संग्रहों के संदर्भों को पढ़कर सामने आए हैं जिनका उल्लेख हमने किया है। यदि इनको पढ़ने के बाद किसी को यह लगता है कि नबी ऐसे नहीं हो सकते, तो फिर यही स्वीकार करना पड़ेगा कि इन पुस्तकों में कहीं न कहीं परिवर्तन हुआ है — जैसा कि हमने अपने पिछले लेख में देखा और दिखाया भी है।
इसीलिए, इस लेख के निष्कर्ष से पहले पाठकों से आग्रह है कि इस्लामी किताबों से बाहर मुहम्मद के व्यक्तित्व को देखने के लिए हमारा संबंधित लेख भी अवश्य पढ़ें।
अगर आपका ईमान कमजोर पड़ रहा है, या आप गहराई से समझना चाहते हैं कि क्या करें?
तो इसके लिए मेरा लेख पढ़ें: [मुताशबेह आयतें] — यह आपको सुकून देगा।
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