
प्रस्तावना
इस्लामी परंपरा यह दावा करती है कि इस्लाम की शुरुआत मक्का में हुई, लेकिन ऐतिहासिक और शिलालेखीय प्रमाण संकेत देते हैं कि इसकी जड़ें यमन और हब्शा (इथियोपिया) की एकेश्वरवादी परंपराओं में गहरी थीं।
1. “रहमान” — यमन का ईश्वर, न कि इस्लाम का आविष्कार
कुरान (25:60) में उल्लेख है:
“और जब उनसे कहा जाता है कि ‘रहमान’ को सज्दा करो, तो वे कहते हैं — ‘ये रहमान कौन है?’”
कई क्लासिकल तफ़सीरकार (इब्न कसीर, ज़मख़शरी और तबरी आदि) इस आयत की व्याख्या करते हुए बताते हैं कि जब मुहम्मद ने “रहमान” नाम का प्रयोग करना शुरू किया, तो मक्का के लोग हैरान होकर बोले:

“हम रहमान को नहीं जानते, हम तो केवल अल्लाह को जानते हैं।”
यह तथ्य स्पष्ट करता है कि “रहमान” शब्द इस्लाम से पहले ही अरबों में प्रचलित था और उसकी जड़ें यमन की एकेश्वरवादी परंपरा से जुड़ी थीं। मुहम्मद द्वारा इसका उपयोग अचानक नहीं था, बल्कि पहले से विद्यमान धार्मिक शब्दावली और देव-परंपरा का विस्तार था।
2. “रहमान” और “मुहम्मद” — यमन के शिलालेखों में
मरिब डैम और क़हतानी-अदनानी विभाजन
दक्षिणी अरब (यमन) प्राचीन काल में एक समृद्ध सभ्यता का केंद्र था। यहाँ स्थित मरिब डैम (Marib Dam, 8वीं शताब्दी ईसा पूर्व) ने सदियों तक कृषि और व्यापार को समृद्ध बनाए रखा। किंतु इस डैम के टूटने से यमन के क़हतानी क़बीले पूरे अरब प्रायद्वीप में फैल गए।

- क़हतानी (قحطاني, Qahtanite) : वे अरब जिनकी मूल मातृभूमि दक्षिणी और दक्षिण-पूर्वी अरब—विशेषकर यमन—मानी जाती है।
- अदनानी (عدناني, Adnanite) : वे अरब जिनकी उत्पत्ति प्रायद्वीप के उत्तरी, पश्चिमी और मध्य भागों से मानी जाती है।
क़हतानी क़बीलों की दो प्रमुख शाखाएँ थीं — हिम्यर (Himyar) और कह्लान (Kahlan)।
अरबी परंपरा के अनुसार, क़हतानी “मूल अरब” (al-‘Arab al-‘Aribah) कहलाए, जबकि अदनानी “अरब बने हुए” (al-‘Arab al-Musta‘ribah) माने गए। दोनों के बीच प्राचीन काल से राजनीतिक व सांस्कृतिक प्रतिस्पर्धा चलती रही।

मरिब डैम का टूटना और विस्थापन
इतिहासकार अल-इस्फ़हानी (961 ई.) के अनुसार, इस्लाम के उदय से लगभग 400 वर्ष पहले मरिब का डैम टूटा।
याक़ूत अल-हमवी इसे अबीसीनियन शासन के समय का मानते हैं।
प्राचीन दक्षिण अरब स्रोत बताते हैं कि लगभग 145 ईसा पूर्व सबा और रेदान राज्यों के युद्ध के दौरान डैम में दरार आई, जिसने कुरान में वर्णित सैल अल-अरीम (سَيْل ٱلْعَرِم, “अरीम की बाढ़”) की नींव रखी। यह घटना लोककथाओं और अरबी कहावतों में भी दर्ज है।
शिलालेखीय प्रमाण: “रहमान” और “मुहम्मद”
यमन और हिम्यराइट साम्राज्य के शिलालेखों में “रहमान” और “मुहम्मद” दोनों का उल्लेख मिलता है। प्रमुख शिलालेख हैं:

- CIH 541, Ja 568, Ry 515, J 1028
- “Bi-smi Raḥmānān” (रहमान के नाम पर)
- “Rb-hd b-Mhmd”
यहाँ “रहमानान” (𐩧𐩢𐩣𐩬𐩬, rḥmnn) शब्द “दयालु” (Merciful) के रूप में ईश्वर का उपनाम (epithet) था। चौथी से छठी शताब्दी तक इसका प्रयोग दक्षिणी अरब में एकेश्वरवादी परमेश्वर के लिए हुआ। विद्वानों का मानना है कि इसका स्रोत इससे पहले सीरिया में था।
- हिम्यराइट साम्राज्य के यहूदी धर्म अपनाने के बाद “रहमानान” को आधिकारिक ईश्वर के रूप में पूजने की परंपरा बनी।
- प्रारंभिक उपयोग संभवतः एक-देव-पूजा (monolatry) के अर्थ में था, जिसे बाद में छठी शताब्दी में ईसाई प्रभाव ने एकेश्वरवाद (strict monotheism) में बदला।
- इन्हीं शिलालेखों में “मुहम्मद” या “mhm’t” जैसा नाम धार्मिक उपाधि (honorific title) के रूप में प्रयुक्त हुआ।

धु-नुवास और रहमान की पूजा
हिम्यर का यहूदी राजा धु-नुवास (Dhu Nuwas) “रहमान” की पूजा करता था। इससे सिद्ध होता है कि यह नाम और परंपरा इस्लाम से पहले ही मोनोटेइस्टिक धार्मिक-सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा थी।
सारांश
- “रहमान” और “मुहम्मद” इस्लाम की खोज नहीं थे, बल्कि इस्लाम से पहले यमन की धार्मिक-सांस्कृतिक शब्दावली का हिस्सा थे।
- कुरान में “रहमान” के प्रयोग पर मक्कावालों की आपत्ति इस बात की गवाही देती है कि यह नाम बाहरी (यमनी) परंपरा से लिया गया था।
- शिलालेखीय प्रमाण यह दर्शाते हैं कि इस्लाम की जड़ें मक्का नहीं, बल्कि यमन और उसके मोनोटेइस्टिक आंदोलनों से जुड़ी हुई थीं।
3. मरिब बांध का टूटना और मक्का की बसावट
लगभग 5वी सदी के के आखिरी वर्षों में के आसपास मरिब बांध (Marib Dam) के पतन से यमन की बड़ी आबादी विस्थापित होकर मक्का और मदीना की ओर चली गई।
कुरान (34:15–17) में “क़ौमे सबा” के संदर्भ में वर्णित “सैल-अल-अरीम” (अरीम की बाढ़) इसी घटना का संकेत माना जाता है।

- इस विस्थापन से पहले किसी भी प्राचीन ग्रंथ या मानचित्र में मक्का का उल्लेख नहीं मिलता।
- जब यमन से आए क़हतानी समूहों ने मक्का, मदीना और आसपास के क्षेत्रों में शरण ली, तभी ये स्थान बसने लगे।
- यही कारण है कि मक्का का उल्लेख सिर्फ 6वीं–7वीं शताब्दी से दिखाई देने लगता है।
मक्का की बजाय यमन और श्याम के लिए प्रार्थना
हदीस साहित्य में कुरैश या मुहम्मद साहब का अरब से ज्यादा यमन के लिए प्रेम भी इस ऐतिहासिक झुकाव को दर्शाता है।
सहीह बुखारी (किताब-उल-फितन, हदीस 7094) में अब्दुल्लाह इब्न उमर से रिवायत है:
नबी (सल्ल.) ने कहा:
“ऐ अल्लाह! हमारे लिए श्याम (सीरिया) में बरकत दे,
ऐ अल्लाह! हमारे लिए यमन में बरकत दे।”लोगों ने कहा: “और हमारे नज्द (अरब का पूर्वी क्षेत्र) में भी।”
नबी ने फरमाया:
“वहाँ से भूकंप और फितने उठेंगे, और वहीं से शैतान का सींग प्रकट होगा।”
यह हदीस सहीह बुखारी (1037, 1038, 3340, 7094), सहीह मुस्लिम (1373a), और अहमद (3/131) में बार-बार दर्ज है।
“अता’कुम अहलुल यमन, उनके दिल कोमल और संवेदनशील हैं; उनका फिक़्ह (धार्मिक ज्ञान) यमानी है और उनकी हिक़्मत (सूझ-बूझ) भी यमानी है।”
यह हदीस दर्शाती है कि पैगंबर मुहम्मद ﷺ स्वयं मानते थे कि उनकी और इस्लाम की जड़ें यमन से जुड़ी हैं।
मक्का (हिजाज़/नज्द) को दुआ से वंचित रखना और यमन को विशेष वरीयता देना यह दर्शाता है कि मुहम्मद का भावनात्मक व सांस्कृतिक झुकाव मक्का से अधिक यमन की ओर था।
4. मक्का का नाम, देवता अलमाका और काबा
अलमाका — सबा का राष्ट्रीय देवता
इस्लाम-पूर्व यमन के सबाई लोगों का राष्ट्रीय देवता अलमाक़ा (𐩱𐩡𐩣𐩤𐩠; अरबी: المقه, अंग्रेज़ी: Almaqah) था, जो चंद्रमा का प्रतिनिधि माना जाता था।

- उसकी पूजा का मुख्य केंद्र अव्वम मंदिर (Awam Temple) था, जो 7वीं शताब्दी ईसा पूर्व से चौथी शताब्दी ईस्वी तक सक्रिय रहा।
- यमन से विस्थापित लोग इस देवता की परंपरा को अरब के उत्तर-पश्चिम में ले गए।
- माना जाता है कि यही चंद्र देवता बाद में हुबल नाम से पूजित हुआ, और उसका चंद्र प्रतीक आज भी इस्लाम में मौजूद है।
काबा और अलमाका की वेदी
अलमाका की वेदी का आकार और स्थापत्य संरचना आज के काबा से अत्यंत मिलती-जुलती थी।
विद्वानों का मत है कि मक्का का नाम भी अलमाका देवता से प्रेरित है, जिसे यमन से आए विस्थापित लोगों ने यहाँ स्थापित किया।

इस तरह, मरिब बांध के पतन, यमनी क़बीलों के विस्थापन, और अलमाका देवता की पूजा—इन सबने मिलकर मक्का और काबा की धार्मिक-सांस्कृतिक नींव रखी, जो इस्लाम के उदय से पहले ही अस्तित्व में थी।
5. काबा की बनावट — यमन की स्थापत्य परंपरा
प्राचीन यमन के मंदिरों की खास विशेषताएँ थीं —
- वे प्रायः चौकोर आकार में बनाए जाते थे।
- उनके द्वार दक्षिणमुखी होते थे।
काबा भी एक घनाकार (cuboid) ढांचा है, जिसकी पूजा पहले यमनी तीर्थयात्री करते थे।
काबा का एक कोना आज भी “रुक्न अल-यमानी” (यमनी कोना) कहलाता है, जो इस यमनी विरासत का प्रत्यक्ष स्मारक है।
अल-अज़रकी अपनी कृति “Akhbar al-Makkah” में उल्लेख करते हैं कि:

“काबा का निर्माण इब्राहीम ने नहीं, बल्कि अमालिका और जुरहुम (यमन से आए लोग) ने किया था।”
6. धार्मिक अवधारणाओं का आयात
इस्लाम की कई प्रमुख धार्मिक अवधारणाएँ पहले से यमन, हब्शा (इथियोपिया), यहूदी और ईसाई परंपराओं में विद्यमान थीं।
- “रहमान” — हिम्यराइट यहूदियों और दक्षिण अरब के शिलालेखों से।
- “जन्नत” (स्वर्ग), “हूर”, “जहन्नुम” (नरक) — यहूदी-ईसाई परंपरा और हब्शा के गॉस्पेल आधारित आख्यानों से।
काबा को इस्लाम का केंद्र बनाने के पीछे भी यही रणनीति थी:
- इसकी संरचना पहले से मौजूद थी।
- इसे एक “दैवी इतिहास” (Sacred History) में फिट करके नया धार्मिक आख्यान गढ़ना आसान था।
7. “क़ौमे-तुब्बा” और “क़ौमे-सबा” — कुरानिक उल्लेख
(क) क़ौमे-तुब्बा (قَوْمُ تُبَّعٍ)
कुरान (सूरा क़ाफ़ 50:14) में आता है:
“और तुब्बा की प्रजा — सबने रसूलों को झुठलाया, तो मेरा अज़ाब उन पर आ पड़ा।”

- “तुब्बा” हिम्यराइट वंश का शासक था।
- उसकी प्रजा हदरमौत (حضرموت) और यमन के आसपास के क्षेत्रों में रहती थी।
- “Hadramaut” का अर्थ है — “मौत का शहर”।
- अतः “क़ौमे-तुब्बा” का सीधा संदर्भ यमन और उसकी हिम्यराइट प्रजा से है।
(ख) क़ौमे-सबा (قوم سبأ)
कुरान (सूरा सबा 34:15) कहता है:
“निश्चय ही सबा वालों के लिए उनके घरों में एक निशानी थी — दो बाग़, दाएँ और बाएँ…”
- सबा (Sheba) दक्षिणी अरब का एक प्राचीन राज्य था, जिसकी राजधानी मरिब थी।
- यह राज्य कई बार हदरमौत का हिस्सा रहा।
- कुरान का यह उल्लेख यमन की प्राचीन समृद्ध सभ्यता और उसके पतन की गवाही है।
इन साक्ष्यों से स्पष्ट है कि इस्लामिक अवधारणाओं और धार्मिक आख्यानों का एक बड़ा हिस्सा सीधे यमन और हब्शा की धार्मिक-सांस्कृतिक परंपराओं से लिया गया, और बाद में उन्हें “मक्काई इतिहास” में गढ़ा गया।
8. बीअर बरहूत — नर्क का कुआं
स्थान: हद्रामौत (حضرموت) — जिसका अर्थ है “मौत का शहर” — यमन का वह क्षेत्र जहाँ बीअर बरहूत (Bir Barhout) नामक एक रहस्यमयी कुआं स्थित है। इसे अरबी लोककथाओं और इस्लामी परंपराओं में “नर्क का कुआं” (Well of Hell) कहा गया है।
इस्लामी एवं लोक मान्यताएँ

- जिन्नों और शैतानों का निवास
– परंपरा के अनुसार यह कुआं “अशरारुल-जिन्न” (Evil Jinn) का गढ़ है।
– कहा जाता है कि यहाँ से अजीब आवाज़ें आती हैं और लोग रात में इसके पास जाने से बचते हैं। - दुष्ट आत्माओं का ठिकाना
– इब्न अबी दुन्या (Ibn Abi Dunya, Kitab al-Qubur) लिखते हैं: “Barhout वह स्थान है जहाँ सबसे बुरी आत्माएँ रखी जाती हैं।”
– इमाम अल-औज़ाई (Al-Awza’i) के अनुसार:
“पापी की आत्मा को मृत्यु के बाद Barhout भेजा जाता है।” - हदीस और कथाएँ
– “Barhout में बहुत गंदी बदबू आती है, यह नरक के दरवाज़ों में से एक दरवाज़ा है।” (अल-अज़रकी, Akhbar al-Makkah)
– “Barhout में पानी नहीं है, केवल अंधेरा और शैतानी आत्माएँ हैं।” (सूफ़ी रिवायतें)
– कुछ हदीसों में आता है: “सबसे बुरी रूहों को बरहूत में डाला जाएगा।” - सूफ़ी दृष्टिकोण
– कई सूफ़ियों ने इसे “रूहानी चेतावनी” और “फंसी हुई आत्माओं की जेल” कहा।
– अल-कुर्तुबी (al-Qurtubi, Tafsir al-Qurtubi) ने इसे दुष्ट आत्माओं का गढ़ माना। - इतिहासकारों का उल्लेख
– इब्न-खल्लिकान और इब्न-बतूता जैसे इतिहासकारों ने बरहूत कुएं का विवरण दिया।
आधुनिक अध्ययन

– Yemen Geological Survey (YGS), Oman Cave Exploration Team (OCET) और UNESCO Cultural Heritage Reports में इसका भूगर्भीय विवरण मिलता है।
– 2021 में ओमानी स्पेलिओलॉजिस्ट्स की टीम ने पहली बार इसमें उतरकर पाया:
- गहराई लगभग 112 मीटर
- दीवारें चूना-पत्थर (limestone) से बनी
- किसी प्रकार की रहस्यमयी ऊर्जा या गैस नहीं,
- परंतु एक अजीब बदबू की पुष्टि हुई।
निष्कर्ष
बरहूत कुआं—जहाँ धर्म, लोककथा और विज्ञान आपस में टकराते हैं। इस्लामी परंपरा ने इसे “नरक का द्वार” कहा, जबकि आधुनिक विज्ञान ने इसे एक प्राकृतिक भूवैज्ञानिक संरचना बताया। लेकिन हद्रामौत क्षेत्र का यह कुआं “जहन्नुम में गिरने” और “जिन्नों के निवास” जैसी अवधारणाओं के जन्म का स्रोत प्रतीत होता है।
9. काबा का पुनर्निर्माण — यमन से सामग्री
ऐतिहासिक घटना (605 CE):
नबी मोहम्मद की नबूवत से पहले, काबा बाढ़ से क्षतिग्रस्त हो गया था। इस समय मक्का के पास जद्दा तट पर एक जहाज़ तूफ़ान में तबाह हुआ। यह जहाज़ यमन और मिस्र से सामान ला रहा था। उसकी लकड़ी और पत्थरों को काबा की मरम्मत में उपयोग किया गया।

मुख्य स्रोत:
- इब्न इशाक — “सीरत रसूल अल्लाह” (अनुवाद: A. Guillaume, The Life of Muhammad, पृष्ठ 85–86):
– “एक ग्रीक व्यापारी बाक़ूम (Baqūm), जो मिस्र से जहाज़ पर लकड़ी ला रहा था, उसका जहाज़ जद्दा के पास डूब गया। कुरैश ने उस लकड़ी को काबा के पुनर्निर्माण के लिए उपयोग किया और बाक़ूम (एक मिस्री क़िब्ती ईसाई) को निर्माण कार्य में शामिल किया।” - अल-तबरी — “तारीख अल-रुसुल वल-मुलूक” (History of Prophets and Kings):
– “जब काबा बाढ़ से नष्ट हुआ तो कुरैश ने उसे पुनः बनाने का निश्चय किया। उसी समय जद्दा में एक बिज़ंटाइन जहाज़ डूबा। उसकी लकड़ी खरीदी गई और एक मिस्री क़िब्ती कारीगर बाक़ूम को बुलाया गया।”
महत्वपूर्ण घटना:
इसी पुनर्निर्माण के दौरान हज्र-ए-अस्वद (काला पत्थर) को दीवार में प्रतिष्ठित करने को लेकर विवाद हुआ। मोहम्मद ने एक चतुराईपूर्ण समाधान निकाला — उन्होंने एक कपड़े पर पत्थर रखवाया और सभी जनजातीय नेताओं से मिलकर उसे उठवाया, फिर स्वयं उसे दीवार में स्थापित किया।

यह घटना काबा और यमन-मिस्र क्षेत्रीय जुड़ाव को दर्शाती है। इसकी संरचना और सामग्री दोनों का मूल दक्षिणी अरब (यमन) और लाल सागर के पार से आया।
10. हज्र-ए-अस्वद — यमन की परंपरा का प्रतीक?
हज्र-ए-अस्वद (Hajr-e-Aswad):
काबा के दक्षिण-पूर्वी कोने में जड़ा हुआ एक अंडाकार काला पत्थर। इसे हदीसों में “स्वर्ग से उतारा गया” बताया गया है। हज के दौरान इसे चूमना, छूना या उसकी ओर इशारा करना सुन्नत माना जाता है।
क्या यह यमन से आया?
प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है कि यह पत्थर “कहतानी लोग उठा कर लाए”, लेकिन निम्नलिखित परोक्ष प्रमाण इसे यमन की परंपरा से जोड़ते हैं:

- यमन में पवित्र पत्थरों की पूजा की परंपरा
– हमयर, सबा और कतबान राज्यों में पवित्र चट्टानों और पत्थरों को पूजने की परंपरा थी।
– यमन के मंदिरों में अक्सर काले पत्थर, उल्कापिंड, और विशेष शिलाएँ देवताओं के प्रतिनिधि रूप में स्थापित की जाती थीं।
– इन्हें “बैत” (देवस्थान) या “मक़ाम” (पवित्र स्थल) कहा जाता था। - मअरिब और सबा की परंपरा
– मअरिब (Marib) और सबा (Saba) जैसे शहरों में चौकोर मंदिर और स्तंभ-आधारित पूजा प्रचलित थी।
– इन मंदिरों में भी पवित्र पत्थरों को देवता का प्रतीक माना जाता था।
– काबा की घनाकार बनावट और हज्र-ए-अस्वद का महत्व संभवतः इन्हीं परंपराओं से प्रभावित है। - इस्लाम-पूर्व पूजा
– इब्न इशाक, अल-जुहरी और इब्न हिशाम के अनुसार, इस्लाम से पहले भी हज्र-ए-अस्वद को पवित्र माना जाता था।
– कुरैश और अन्य जनजातियाँ इसे चूमती थीं, बलि चढ़ाती थीं, और इसे ब्रह्मांडीय शक्ति का प्रतीक मानती थीं।
– इसे “देवता की आँख” और तावीज़ की तरह भी देखा जाता था।
निष्कर्ष
इस्लाम से पहले ही हज्र-ए-अस्वद पूज्य था। मोहम्मद ने उस परंपरा को “तौहीदी अर्थ” (एकेश्वरवाद से जोड़कर) दे दिया।
संभावना है कि यह पत्थर यमन या उसके सांस्कृतिक क्षेत्र से आया और मक्का में प्रतिष्ठित किया गया।
11. जुरहुम — मक्का की यमनियों द्वारा स्थापना
इब्राहीम और इस्माईल के बाद की परंपरा
इस्लामी परंपरा बताती है कि मक्का में सबसे पहले बसने वाली जनजाति जुरहुम थी, जो यमन के कहतानी (Qahtanite) लोगों में से थी।

– इन्हीं ने काबा की देखरेख, पूजा-पाठ और मूर्ति-प्रतिष्ठा की परंपरा चलाई।
– इस्माईल और हाजरा को सहारा दिया, कुएँ और पत्थरों की रक्षा की, पवित्र स्थलों को संभाला।
– काबा के भीतर मूर्तियों की स्थापना की और मक्का को धार्मिक स्थल का रूप दिया।
यह दर्शाता है कि मक्का की धार्मिक पहचान यमनियों की निर्णायक भूमिका से बनी थी।
मक्का — क्या ऐतिहासिक रूप से अदृश्य था?
6वीं सदी से पहले किसी भी यूनानी, रोमन या भारतीय मानचित्र, यात्रा-वृत्तांत या अभिलेख में “मक्का” का उल्लेख नहीं मिलता।
कई पश्चिमी इतिहासकारों ने इस आधार पर मक्का की प्राचीनता और व्यापारिक महत्व पर संदेह जताया है:

- Patricia Crone (Hagarism, Meccan Trade and the Rise of Islam):
मक्का कोई प्रमुख व्यापारिक केंद्र नहीं था, यह इस्लामी परंपरा का दावा मात्र है। - Tom Holland (In the Shadow of the Sword):
इस्लाम का प्रारंभिक विकास वास्तव में उत्तरी अरब या सीरिया में हुआ हो सकता है। - Dan Gibson (Quranic Geography):
इस्लाम की उत्पत्ति मक्का में नहीं, बल्कि पेट्रा (Petra) में हुई थी — क्योंकि शुरुआती मस्जिदों की दिशा (Qibla) पेट्रा की ओर है, मक्का की ओर नहीं।
विशेष प्रश्न:
“पैगंबर ने यमन और श्याम की दुआ की, पर नज्द (मक्का-क्षेत्र) के लिए क्यों नहीं?”
उत्तर:
– यमन और हब्शा (Ethiopia) को उपजाऊ, सुसंस्कृत और ईश्वरीय भूमि माना गया। यह पैगंबर और उनके अनुयायियों का सांस्कृतिक-आध्यात्मिक जुड़ाव दिखाता है।
– इसके विपरीत, नज्द (मक्का-क्षेत्र) के बारे में पैगंबर ने कहा: “वहाँ से फितने उठेंगे और वहीं से शैतान का सींग प्रकट होगा।” (सहीह बुखारी 7094, 1037, मुस्लिम 1373a)।
यह मक्का को “दूसरे दर्जे” पर रखने जैसा था।

समापन प्रश्न और उत्तर
प्रश्न 1: क्या “रहमान” इस्लाम का मौलिक ईश्वर है?
उत्तर: नहीं, यह यमन की धार्मिक परंपरा से लिया गया था।
प्रश्न 2: क्या “मुहम्मद” नाम इस्लाम से पहले भी था?
उत्तर: हाँ, यह एक धार्मिक पद या उपाधि के रूप में प्रचलित था।
प्रश्न 3: क्या मक्का मरिब के विस्थापितों द्वारा बसाया गया?
उत्तर: हाँ, क्योंकि 6वीं सदी से पहले मक्का का कोई ऐतिहासिक उल्लेख नहीं है।
प्रश्न 4: क्या काबा और उसकी पूजा यमन से आई?
उत्तर: हाँ, इसमें पूर्ण सांस्कृतिक और संरचनात्मक समानता मिलती है।
प्रश्न 5: क्या हज्र-ए-अस्वद यमन परंपरा से जुड़ा है?
उत्तर: प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं, लेकिन परंपराओं की समानता से गहरा संबंध स्पष्ट है।
अंतिम निष्कर्ष
“इस्लाम मक्का से नहीं, बल्कि यमन और हब्शा की मोनोटेइस्टिक परंपराओं से आया धार्मिक आंदोलन था — जिसे मुहम्मद ने राजनीतिक उद्देश्य से मक्का की भूमि पर स्थापित किया।”
दूसरे शब्दों में:
“इस्लाम, यमन और हिमयर की मसीही-मोनोथेइस्ट परंपरा की विरासत है, जिसे मुहम्मद ने यमन-हब्शा की परंपराओं को मक्का की पृष्ठभूमि पर नया स्वरूप दिया। ”
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संदर्भ सूची (Suggested Reading List)
- Patricia Crone – Meccan Trade and the Rise of Islam
- Tom Holland – In the Shadow of the Sword
- Dan Gibson – Quranic Geography
- Robert Hoyland – Arabia and the Arabs
- Irfan Shahid – Byzantium and the Arabs in the Fifth Century
- Alfred Beeston – South Arabian Inscriptions
- Ibn Ishaq – Sirat Rasul Allah (trans. A. Guillaume)
- Al-Tabari – Tarikh al-Rusul wa al-Muluk
- UNESCO Reports on Yemen’s Archaeological Heritage
- Corpus Inscriptionum Semiticarum (Inscriptions of Ancient Yemen)
- Fred Donner – Narratives of Islamic Origins
- Garth Fowden – Empire to Commonwealth: Consequences of Monotheism in Late Antiquity
