
इस्लामी परंपरा में एक अनोखा औज़ार है—“बिला कैफ़” (بلا كيف)।
मतलब: कैसे? यह मत पूछो।
मौलाना की जेब में अगर पेन न हो, मोबाइल न हो, तो भी “बिला कैफ़” ज़रूर होगा। क्योंकि यही उनका आख़िरी बचाव-हथियार है। जब भी कुरान या हदीस में अल्लाह को इंसानी अंगों या भावनाओं के साथ जोड़ा जाता है और कोई जिज्ञासु सवाल कर बैठता है—मौलाना तुरन्त कह देते हैं:
“भाई, बिला कैफ़ मान लो। यानी, हाथ है तो है… लेकिन कैसा है, यह मत पूछो। चेहरा है तो है… मगर शक्ल कैसी, यह मत पूछो। अर्श पर बैठा है, मगर कैसे बैठा—यह मत पूछो।”
यानी प्रश्न पर ताला, और सवाल करने वाला गुनहगार।
कुरान का सीधा निर्देश: “सवाल मत करो”
सूरा मायदह (5:101):
“ऐ ईमान वालों! ऐसी बातों के बारे में सवाल मत करो, जो अगर तुम्हें बता दी जाएँ तो तुम्हें बुरी लगेंगी।”

वाह! पहले तो कुरान बार-बार कहता है:
- “सोचो-समझो” (10:100)
- “अक़्ल का इस्तेमाल करो” (67:10)
लेकिन जैसे ही असली विरोधाभास पकड़ में आता है—फ़ौरन आदेश: “सवाल मत करो।”
तो सवाल यह है:
अगर अल्लाह ने इंसान को दिमाग और जिज्ञासा दी है, तो फिर पूछने पर रोक क्यों? और अगर कुरान सचमुच “स्पष्ट मार्गदर्शन” (16:89) है, तो फिर उसमें ऐसे शब्द क्यों हैं जो खुद ही उलझाते हैं?
“बिला कैफ़” का प्रयोग कहाँ-कहाँ?
1. अल्लाह का “हाथ” और “चेहरा”
कुरान (48:10): “अल्लाह का हाथ उनके हाथों के ऊपर है।”
– सवाल: अगर अल्लाह निराकार है तो “हाथ” कैसा?
– क्या इसमें पाँच उंगलियाँ भी होंगी?
मौलाना जवाब देंगे: “बिला कैफ़।”
मतलब—हाथ है, पर X-ray मत करवाओ।

कुरान (55:27): “तेरे रब का चेहरा बाकी रहेगा।”
– चेहरा है तो शक्ल कैसी?
– आँख, नाक, कान भी हैं क्या?
मौलाना: “चेहरा है… लेकिन Photoshop मत करना।”
सलफ़ी और शुरुआती हंबली आलिमों का फॉर्मूला:
“मान लो कि हाथ और चेहरा हैं, लेकिन यह मत पूछो कि कैसे।”
2. अल्लाह का “अर्श पर बैठना”
कुरान (20:5): “रहमान अर्श पर इस्तवा किया।”
यानी, अल्लाह अर्श (सिंहासन) पर बैठा।

अब कोई पूछ ले: “कुर्सी पर या सोफ़े पर?”
तो जवाब—“बैठा तो है, लेकिन Furniture मत पूछो।”
इमाम मालिक का कथन मशहूर है:
“इस्तवा मालूम है, कैफ़ियत अज्ञात है, उस पर ईमान ज़रूरी है, पूछना बिदअत है।”
मतलब, बैठना मालूम है—कैसे बैठा, यह पूछोगे तो गुनहगार।
3. अल्लाह की “आँख”
कुरान (54:14): “वह (नूह की नौका) हमारी निगरानी में चल रही थी।”
हदीसों में भी “अल्लाह की आँख” का ज़िक्र है।
बच्चा पूछ बैठे: “आँख का रंग क्या होगा?”
मौलाना गरज उठे: “आँख है… लेकिन स्केच मत बनाना।”
जवाब—“बिला कैफ़।”
असली संकट कहाँ है?

1. तर्क-विरोधाभास
अगर कहना ही है कि अल्लाह के हाथ हैं → सवाल उठेगा: कैसे हैं?
अगर स्पष्ट कर दो कि यह रूपक (metaphor) है → समस्या खत्म।
अगर शाब्दिक मान लो → तो अल्लाह पर इंसानी गुण थोपने पड़ेंगे।
लेकिन “बिला कैफ़” दोनों से भागने का नाम है—कह दो, लेकिन समझाओ मत।
2. इंसान को दिमाग क्यों दिया गया?
कुरान कहता है: “अक़्ल से काम लो।”
लेकिन जैसे ही कोई असंगति पकड़ो → “सवाल मत करो।”
तो क्या अल्लाह ने इंसान को दिमाग सिर्फ़ इसीलिए दिया कि वह सवाल करे, और फिर सवाल करने पर गुनहगार घोषित हो जाए?

3. शुरुआती आलिम भी परेशान थे
इमाम अहमद बिन हम्बल से जब “कुरान मख़लूक है या नहीं” पूछा गया—तो उन्होंने भी “बिला कैफ़” की नीति अपनाई।
इब्न तैमिय्या ने भी कई जगह यही रवैया अपनाया:
“जो आया है, मान लो। लेकिन कैसा है—मत पूछो।”
यानी, यह सिर्फ़ एक मौलाना का बहाना नहीं, बल्कि पूरी इस्लामी बौद्धिक परंपरा की नींव बन गया।
4. इंसानी भाषा का संकट
अगर अल्लाह सचमुच इंसान को स्पष्ट मार्गदर्शन देना चाहता था, तो वह उलझी हुई भाषा का सहारा क्यों लेता?
“हाथ” कहकर फिर कहो—कैसा है मत पूछो।
“चेहरा” कहकर फिर कहो—शक्ल मत पूछो।
यह तो वैसा हुआ जैसे कोई शिक्षक कहे:
“मेरे पास बहुत बड़ा राज़ है… लेकिन मत पूछो।”

व्यंग्य में छिपा सच
“बिला कैफ़” दरअसल मौलाना का Mute Button है।
जहाँ तर्क और सवाल उठते हैं, वहाँ मौलाना रिमोट दबाते हैं—
👉 “भाई, सवाल बंद कर… वरना ईमान खतरे में पड़ जाएगा।”
यह इंसान की जिज्ञासा को ताले में बंद कर देता है।
यह कुरान के अपने दावे “स्पष्ट मार्गदर्शक” होने से टकराता है।
यह बौद्धिक ईमानदारी की जगह धार्मिक पलायनवाद को बढ़ावा देता है।
निष्कर्ष
“बिला कैफ़” असल में जवाब न होने का जवाब है।
यह मौलाना की जेब में रखा वह रबर-स्टाम्प है जिस पर लिखा है:
“सवाल बंद।”
असल अर्थ:
“हमारे पास जवाब नहीं है, लेकिन चुप रहो—वरना तुम्हारा ईमान खतरे में है।”
यह न तो कोई गंभीर समाधान है, न मार्गदर्शन।
यह सिर्फ़ सोचने वाले को गुनहगार बनाने और आँख मूँदकर मानने वाले को स्वर्ग का वादा देने का एक हथकंडा है।
👉 सवाल को दबाना, सवाल का उत्तर नहीं होता।
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