
अब तक के लेखों में हमने देखा कि कुरान और हदीस समय के साथ बदलते रहे, और उनमें वर्णित ‘अल्लाह’ हमारी सहज मानवीय समझ वाले ईश्वर से बिल्कुल अलग दिखाई देता है।
ऐसे में कुरान को मानने वाला अक्सर दो राहों पर खड़ा होता है—
- या तो हर सवाल पर चुप्पी साध ले और कहे: “बिला कैफ़ — जैसा है वैसा मान लो।”
- या फिर मुताशबेह आयतों का सहारा लेकर ईमान को बचाए रखे।
पहला रास्ता सवालों को मार देता है, जबकि दूसरा रास्ता ईमान और इंसानियत दोनों को बचाए रखने का मौका देता है।
तो आइए देखें, आपके ईमान को बचाने का यह ‘बेहतरीन समाधान’ क्या है।
कुरान का दावा
कुरान खुद यह मानता है कि इसमें दो तरह की आयतें हैं:
- मुहकमात: स्पष्ट, साफ, बुनियादी
- मुताशबेहात: अस्पष्ट, बहुअर्थी

सूरा आले-इमरान (3:7):
“उसने ही आप पर किताब उतारी, जिसमें से कुछ आयतें मुहकमात हैं… और दूसरी मुताशबेहात। फिर जिनके दिलों में टेढ़ है, वे फितना चाहने और अपनी मर्जी से मतलब निकालने के लिए मुताशबेहात के पीछे पड़ते हैं। और उनका सही अर्थ अल्लाह के सिवा कोई नहीं जानता…”
यहीं से असली विवाद शुरू होता है।
समस्या: कौन-सी आयतें मुताशबेह हैं?
कुरान यह स्पष्ट नहीं करता कि कौन-सी आयत किस श्रेणी में आती है।
इसका नतीजा यह हुआ:
- एक मौलाना जिस आयत का अर्थ नहीं निकाल पाते, उसे “मुताशबेह” कहकर बच निकलते हैं।
- दूसरा आलिम उसी आयत की व्याख्या करके कह देता है: “यह तो बिल्कुल स्पष्ट है, यह मुहकम है।”

यानि, मुताशबेह का लेबल तयशुदा नहीं, बल्कि पूरी तरह व्यक्ति-आधारित ठप्पा है।
उदाहरण 1: अल्लाह का “हाथ” और “चेहरा”
कई आयतों में अल्लाह के लिए हाथ, चेहरा और आँख का ज़िक्र है।
- सूरा फ़तह 48:10: “अल्लाह का हाथ उनके हाथों के ऊपर है।”
- सूरा रहमान 55:27: “तेरे रब का चेहरा बाकी रहेगा।”
मतभेद:

- इमाम मालिक और अहमद बिन हम्बल (सलफ़ी आलिम): “यह बिला कैफ़ है, तफ़सील अल्लाह को मालूम (यानी बिना पूछे मानो),—पूरी तरह मुताशबेह।”
- इमाम फ़ख़रुद्दीन राज़ी (अशअरी आलिम): “हाथ मतलब ताक़त, चेहरा मतलब अस्तित्व”—यानी रूपक (metaphor) मानकर समझाया।
एक कहता है मुताशबेह, दूसरा कहता है रूपक से बिल्कुल स्पष्ट।
उदाहरण 2: सात आसमान
- सूरा मुल्क 67:3: “जिसने सात आसमान बनाए।”
- सूरा तलाक 65:12: “अल्लाह ने सात आसमान और ज़मीन से वैसा ही बनाया।”

मतभेद:
- शुरुआती विद्वान (जैसे इब्न अब्बास): “असल में सात आसमान हैं, लेकिन स्वरूप अल्लाह ही जानता है”—मुताशबेह करार दिया।
- बाद के विद्वान (जैसे अल-बैदावी, इब्न कसीर): “ सात का मतलब “तदाद” नहीं बल्कि “कसरत” (बहुतायत) भी हो सकता है”—व्याख्या।
एक कहता है अज्ञेय रहस्य, दूसरा करता है तर्क।
उदाहरण 3: नसीख-ओ-मंसूख (आयतों का रद्द होना)
- सूरा बकरा 2:106: “हम कोई आयत रद्द नहीं करते या भुलाते नहीं, मगर बेहतर या वैसी ही लाते हैं।”

मतभेद:
- इब्न अब्बास और कतादा: “यह मुताशबेह मामला है—हर इंसान नहीं समझ सकता कि कौन-सी आयत किसे रद्द करती है।”
- इमाम शाफ़ी और इब्न कसीर: बाकायदा सूची बनाई कि कौन-सी आयत किसे रद्द करती है।
यानि, कुछ के लिए रहस्य, कुछ के लिए व्यवस्थित विज्ञान।
(इससे जुड़ा विस्तार: देखें हमारा लेख—“कुरान कॉन्टेक्स्ट का छलावा”)
उदाहरण 4: “रूह” (आत्मा)
- सूरा इसरा 17:85: “वे तुझसे रूह के बारे में पूछते हैं… कह दे: रूह मेरे रब का मामला है।”

मतभेद:
- इमाम तबरी: “यह पूरी तरह मुताशबेह है—इंसान कभी नहीं समझ सकता।”
- इब्न सीना और ग़ज़ाली जैसे फ़लसफ़ी और सूफी आलिम: आत्मा की विस्तार से परिभाषाएँ गढ़ दीं।
आलोचना
कुरान कहता है कि यह “बयान” और “हिदायत” है (16:89, 2:2),
लेकिन साथ ही यह भी मानता है कि कुछ आयतें केवल अल्लाह ही जानता है।
विद्वानों का रवैया विरोधाभासी है:

- जब जवाब न मिले → “मुताशबेह” कहकर पल्ला झाड़ लो।
- जब विज्ञान या तर्क से मेल बैठा लिया → “स्पष्ट” बता दो।
साफ है—मुताशबेह कोई ईश्वरीय श्रेणी नहीं, बल्कि सुविधा का हथियार है।
निष्कर्ष
मुताशबेह आयतों की धारणा असल में अस्पष्टता को पवित्र बनाने का तरीका है।

- एक आलिम मजबूरी में आयत को मुताशबेह घोषित करता है।
- दूसरा उसी आयत को लंबी व्याख्या से स्पष्ट कर देता है।
यानि, कुरान खुद यह नहीं बताता कि कौन-सी आयतें स्थायी रूप से मुताशबेह हैं।
नतीजा: मुताशबेह का सिद्धांत आलोचना से बचने और सवालों को दबाने का सबसे कारगर औज़ार है।
अंतिम अपील: सवाल पूछना ही सच्चा ईमान है
अगर कुरान खुद मानता है कि कुछ आयतें केवल अल्लाह ही जानता है, तो इंसानों की “पक्की व्याख्याएँ” कितनी सच्ची हो सकती हैं?
क्या यह बेहतर नहीं कि—

- जो आयत दिल को छूती है, उसे स्वीकार करें।
- जो आयत उलझन देती है, उसे मुताशबेह मानकर छोड़ दें।
ईमान का असली मकसद हर उलझन को ज़बरदस्ती सुलझाना नहीं,
बल्कि इंसानियत, करुणा और सच की खोज में आगे बढ़ना है।
अगली बार जब मौलाना किसी भी कठिन आयत को “मुताशबेह” कहकर अपने मन का अल्लाह आप पर थोपे, तो उससे बेहतर यह है कि आप खुद तय करें—कौन-सी आयत आपके ईश्वर की छवि से मेल खाती है, और कौन-सी नहीं।
इससे न आपका ईमान जाएगा और न ही आपके दिल का सच्चा ईश्वर।
याद रखिए
- रहस्य से डरना नहीं है, बल्कि स्वीकार करना है।
- जो “ईश्वर” इंसानियत से दूर ले जाए, वह सच्चा ईश्वर नहीं हो सकता।
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