हदीसों की दुनिया: विश्वास या छलावा?

अक्सर मुझसे पूछा जाता है — “आप इस्लाम पर इतना क्यों लिखते हैं?”
मेरा जवाब सिर्फ़ दो शब्दों में है: मेरे सवाल।

वे सवाल, जो इस्लामी धार्मिक ग्रंथों को पढ़कर मेरे भीतर उठते हैं।
और जब मैं उनके जवाब तलाशता हूँ, तो सामने यह सच्चाई आती है कि —

इस्लाम की कई शिक्षाएँ आधुनिक सभ्य समाज और इंसानियत के लिए सीधा ख़तरा हैं।

यह निष्कर्ष मिलने पर मेरे मन में एक और बड़ा सवाल खड़ा होता है:
“क्या किसी सर्वशक्तिमान ईश्वर की दी हुई शिक्षा कभी इंसानियत के लिए ख़तरा हो सकती है?”

क्या सचमुच इस्लाम की विवादित बातें — जैसे गुलामी, बच्चियों की शादी, काफ़िर का कत्ल — अल्लाह और उसके रसूल से आई हैं?

या फिर इंसानों ने सत्ता, राजनीति और निजी स्वार्थ के लिए इन्हें गढ़ा और ईश्वर का नाम देकर पवित्र बना दिया?

मेरी समझ साफ़ कहती है — कोई भी सच्चा ईश्वर ऐसा आदेश नहीं दे सकता।
इसीलिए ज़रूरत है यह परखने की कि इन शिक्षाओं का स्रोत कितना प्रामाणिक है।


इस्लाम को समझने के दो स्तंभ

1. हदीस (रिवायतें)

हदीस को “मुहम्मद का आचरण और कथन” माना जाता है।
मुसलमानों की धार्मिक ज़िंदगी हदीसों पर ही टिकी है —

  • नमाज़ की सही विधि
  • रोज़े के नियम
  • कौन-सा काम सुन्नत है और कौन-सा हराम

इन सबकी जानकारी बिना हदीस संभव ही नहीं।
कुरान में कई जगह संदर्भ स्पष्ट नहीं है, या यूँ कहें कि आयतें पूरा संदेश स्पष्ट नहीं करतीं।

इसलिए इस्लाम की रीढ़ वास्तव में हदीस ही है।


2. कुरान (ग्रंथ)

मुसलमान मानते हैं कि कुरान कभी बदला नहीं।
लेकिन इतिहास गवाही देता है कि इसमें भी संपादन और बदलाव हुए हैं।
(इस पर मैं अगली कड़ी में विस्तार से चर्चा करूंगा।) [Link]


हदीस –

इस लेख में मैं हदीसों पर ध्यान दूँगा —
क्योंकि बिना हदीस इस्लाम अधूरा है।

हदीस की श्रेणियाँ

इस्लाम में हदीसों को तीन मुख्य श्रेणियों में बाँटा गया है:

  1. सहीह (Authentic): जिसमें रावी की सत्यता, स्मरण शक्ति और श्रंखला मजबूत मानी गई।
  2. हसन (Good): अपेक्षाकृत कमजोर लेकिन फिर भी स्वीकार्य।
  3. ज़ईफ़ (Weak): जिसमें संदेह या असंगति पाई गई।

समस्या यह है कि यह पूरी प्रणाली इंसानी राय, राजनीति और समयानुसार गढ़ी गई परंपराओं पर आधारित थी।
“गढ़ी गई कहानियाँ” शब्द शायद कठोर लगे, लेकिन इस लेख के अंत तक आप देखेंगे कि इस धारणा का आधार कितना गहरा है।


हदीस-लेखन पर शुरुआती प्रतिबंध: इतिहास और प्रश्न

इस्लामिक परंपरा में क़ुरआन के साथ हदीस को दूसरा सबसे बड़ा स्रोत माना जाता है। लेकिन एक ऐतिहासिक तथ्य अक्सर अनदेखा रह जाता है—इस्लाम के शुरुआती दौर में हदीस लिखने पर प्रतिबंध था।

  • पैग़म्बर मुहम्मद ﷺ ने कहा:
    “मेरे सिवा कुछ मत लिखो। जिसने लिखा है, वह मिटा दे, सिवाय क़ुरआन के।” (सहीह मुस्लिम 3004)
  • अबू बकर ने हदीसें लिखकर जला दीं, यह कहते हुए कि गलती और भ्रम का डर है (तबक़ात इब्न सअद).
  • उमर इब्न अल-ख़त्ताब ने स्पष्ट रूप से आदेश दिया कि हदीस-लेखन बंद रहे और कहा:
    “क़ुरआन हमारे लिए काफ़ी है।” Taqyid al-‘Ilm (al-Khatib al-Baghdadi) में इसका उल्लेख मिलता है।
  • लगभग एक सदी बाद उमर इब्न अब्दुल अज़ीज़ (उमय्यद खलीफ़ा) ने पहली बार हदीसों को आधिकारिक रूप से संकलित करने का आदेश दिया।
  • अब्बासी काल (8वीं–9वीं सदी) में जाकर सहीह बुख़ारी, सहीह मुस्लिम और मुवत्ता जैसी किताबें लिखी गईं — यानी पैग़म्बर की मृत्यु के लगभग 200 वर्ष बाद।
Sahih Muslim 3004
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आलोचनात्मक प्रश्न

अगर पैग़म्बर और शुरुआती खलीफ़ाओं ने हदीस-लेखन से मना किया, तो बाद में लिखी गई हज़ारों हदीसों को आज शरीअत का आधार कैसे मान लिया गया?
क्या यह इस्लामी परंपरा में एक गहरा ऐतिहासिक विरोधाभास नहीं है?

बुख़ारी का उदाहरण: छँटाई या चमत्कार?

मुसलमानों के लिए कुरान के बाद सबसे विश्वसनीय ग्रंथ है सहीह अल-बुख़ारी

इसके संकलक इमाम बुख़ारी (810–870 CE) के बारे में दावा किया जाता है कि उन्होंने लगभग 5 से 6 लाख हदीसें सुनीं, और उनमें से लगभग 8,000 को अपनी किताब में शामिल किया।

  • तज़्किरतुल हफ़ाज़ (Al-Dhahabi):
    बुख़ारी का कथन — “मैंने 100,000 सहीह हदीसें और 200,000 असहीह हदीसें याद की हैं।”
  • एन्साइक्लोपीडिया ऑफ़ इस्लाम (Brill):
    उल्लेख है कि उन्होंने लगभग 6 लाख हदीसें जाँची।

मक्का और मदीना में समय


  • 16 वर्ष की उम्र में इमाम बुख़ारी पहली बार हज के लिए मक्का गए।
  • उसके बाद कुछ वर्षों तक उन्होंने मक्का-मदीना में हदीसों का अध्ययन किया।
  • लेकिन उनका स्थायी निवास वहाँ नहीं था; वे केवल अध्ययन और संग्रह के उद्देश्य से आते थे।

यानी उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से हदीस-विद्वानों से सीखने में अधिकतम 4–6 वर्ष ही लगाए।


सवाल यह उठता है कि अगर अध्ययन का वास्तविक समय इतना सीमित था, तो लाखों हदीसें छाँटने का दावा कितना व्यावहारिक हो सकता है?

5 लाख हदीसों का गणित

उन्होंने लगभग 6,00,000 हदीसें जाँचीं और उनमें से  लगभग 8,000 (दोहराव सहित) चुनीं।

दोहराव हटाने पर केवल 2,600–2,700 अलग-अलग हदीसें बचती हैं।

यथार्थवादी विश्लेषण

मान लीजिए, बुख़ारी ने 16 साल की उम्र से 60 साल तक (44 साल) हदीसें जाँचीं।

  • कुल हदीसें: 5,00,000
  • औसत प्रति वर्ष: 11,364
  • औसत प्रति दिन: 31 हदीसें — हर दिन, बिना रुके, 44 साल तक!

अब सोचिए:

  • अगर एक हदीस की जाँच (रावी का चरित्र, मुलाकात, श्रंखला की पुष्टि) में सिर्फ़ 1 घंटा भी लगे →
    कुल समय = 5,00,000 घंटे
  • यानी लगातार 57 साल (24 घंटे प्रतिदिन) का काम!
  • और यदि इंसान रोज़ाना केवल 8 घंटे काम करे → 171 साल लगेंगे

साफ़ है, यह दावा मानव क्षमता से परे और असंभव है।


सहीह ग्रेडिंग की शर्तें

इमाम बुख़ारी ने हदीस को “सहीह” मानने के लिए ये शर्तें रखीं:

  • Adalat (चरित्र): रावी का ईमानदार होना
  • Dabt (स्मरण शक्ति): याददाश्त मज़बूत होना
  • Muʿāsir (समकालीनता): रावी और शिक्षक का एक ही दौर में होना व मुलाकात साबित होना
  • Muttaṣil Isnad (श्रंखला): सिलसिला टूटा न हो

लेकिन सवाल यह है —
क्या उस युग में हर रावी की जन्म-तिथि, यात्राएँ और मुलाकातें सचमुच प्रमाणित की जा सकती थीं?


आलोचनात्मक दृष्टिकोण


प्रसिद्ध विद्वानों ने इस पर गंभीर सवाल उठाए हैं:

  • Ignaz Goldziher
  • Joseph Schacht
  • Patricia Crone

इनका निष्कर्ष:

  • हदीस-संग्रह असल में धार्मिक और राजनीतिक आंदोलन का हिस्सा था।
  • अधिकांश हदीसें मुहम्मद की मृत्यु के 200–300 साल बाद गढ़ी गईं।
  • असली उद्देश्य था → किसी ख़लीफ़ा, फ़िक़्ह या राजनीतिक विचारधारा को धार्मिक जामा पहनाना।

सहीह हदीसों में विरोधाभास

कठोर छँटाई के बाद भी “सहीह” कहलाने वाली हदीसें ऐसी निकलीं जो:

  • विज्ञान से टकराती हैं: सूरज पानी के कुंड में डूबता है (हदीस 3199)
  • नैतिकता से टकराती हैं: आयशा की शादी 6 साल की उम्र में (हदीस 5133)
  • कुरान से टकराती हैं: कई जगहों पर स्पष्ट विरोधाभास
Bukhari 3199
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Bukhari 5133
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अगर इतनी छानबीन के बाद भी विरोधाभासी हदीसें “सहीह” मानी जाती हैं, तो पूरी प्रणाली की ईमानदारी संदिग्ध हो जाती है।

निष्कर्ष

  • 5–6 लाख हदीसों की छँटाई और जाँच मानव रूप से असंभव थी।
  • बिना किसी लिखित रिकॉर्ड या साक्ष्य के यह दावा धार्मिक प्रचार ज़्यादा और ऐतिहासिक वास्तविकता कम लगता है।
  • “सहीह” हदीसों में ही अमानवीय कथाएँ, विरोधाभास और राजनीतिक मक़सद साफ़ नज़र आते हैं।

इससे यही झलकता है कि —
जिस दौर में जैसे फ़ैसले और फ़तवे चाहिए थे, वैसी हदीसें गढ़ी जाती रहीं।

अगला सवाल

तो अब सबसे अहम सवाल यही है:
क्या हमारे पास सबूत है कि हदीसें सचमुच जानबूझकर गढ़ी जाती थीं?


अबू हुरैरा: हदीसों का कारख़ाना

अबू हुरैरा (أبو هريرة‎), जिनका असली नाम ʿAbd al-Rahman ibn Sakhr al-Dawsi था, हदीस परंपरा में सबसे बड़ा और सबसे विवादास्पद नाम है।

मुहम्मद के साथ उनका समय

  • इस्लाम कबूल किया: 7 हिजरी (629 CE)
  • मुहम्मद की मृत्यु: 11 हिजरी (632 CE)
    यानी, सिर्फ़ तीन साल के लिए नबी के साथ रहे।

लेकिन उनकी बयान की हुई हदीसें:

  • अबू हुरैरा → 5,374
  • अली इब्न अबू तालिब → ~586 (23 साल तक साथ रहे)
  • आयशा बिन्त अबू बक्र → ~2,210 (9 साल साथ रहीं)
  • अब्दुल्ला इब्न उमर → ~2,630 (10+ साल साथ रहे)
  • अब्दुल्ला इब्न मसूद → ~848 (लगभग पूरा पैग़म्बरी काल)

स्रोत: Sahih al-Bukhari Index, Sahih Muslim, Musnad Ahmad

सवाल साफ़ है:
सिर्फ़ 2–3 साल में 5,374 हदीसें याद और बयान करना कैसे मुमकिन था, जबकि करीबी सहाबा — अली, आयशा और इब्न मसूद — उनसे कहीं कम हदीसें बयान करते हैं?


सहाबा की आलोचना: अबू हुरैरा पर संदेह

अबू हुरैरा की हदीसों पर सिर्फ़ आधुनिक आलोचक ही नहीं, बल्कि सहाबा ने भी ऐतराज़ जताया।

आयशा (रज़ि.) के विरोध

  • एक प्रसिद्ध मतभेद:
    • अबू हुरैरा की हदीस: “अगर सामने कोई पर्दा (sutrah) न हो तो आदमी की नमाज़ को औरत, गधा और काला कुत्ता तोड़ देता है।” (Sunan Ibn Majah)
    • आयशा की गवाही: “मैं खुद बिस्तर पर होती थी और रसूलुल्लाह ﷺ मेरे और क़िबला के बीच नमाज़ पढ़ते थे।” Bukhari 514
Sunan Ibn Majah
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Bukhari 514
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यानी, एक तरफ़ हदीस कहती है कि औरत गुज़रे तो नमाज़ टूट जाती है। दूसरी तरफ़ आयशा खुद कहती हैं कि मैं सामने पड़ी रहती थी, लेकिन नबी ﷺ ने नमाज़ जारी रखी।

आलोचना और बचाव

  • मुत्तफ़र्रिक़ (scattered) हदीसों को देखकर कई विद्वान और आलोचक ख़ासकर शिया विद्वान और ओरिएंटलिस्ट (Goldziher, Schacht आदि) कहते हैं कि आयशा ने अबू हुरैरा को भूलने वाला या गलत बयान करने वाला कहा।
  • सुन्नी विद्वान इसे “तआरुज़” (apparent contradiction) मानते हैं और तर्क देते हैं कि यह फ़िक़्ही इज्तेहाद या हालात का फर्क है।

यथार्थवादी निष्कर्ष

इतनी हज़ारों हदीसों का दावा, वो भी केवल 2–3 साल की संगत से, अपने आप में अस्वाभाविक लगता है।
ऊपर से सहाबा के बीच विरोधाभासी बयान साफ़ दिखाते हैं कि:

  • अबू हुरैरा की हदीसें उसी समय से विवादित थीं।
  • उनकी रिवायतों को आँख मूँदकर “सहीह” मान लेना ऐतिहासिक और तार्किक दोनों दृष्टियों से कमज़ोर है।

यही कारण है कि कई आधुनिक शोधकर्ता उन्हें “हदीसों का कारख़ाना” कहते हैं — जहाँ से बड़ी तादाद में रिवायतें निकलीं, पर उनकी प्रमाणिकता हमेशा सवालों में रही।


शिया और आलोचक विद्वानों की दृष्टि

1. उमर और अली की आलोचना

  • अल-इसक़ाफी (via Ibn Abi al-Hadid, Sharh Nahj al-Balagha, vol. 1, p. 360)  قال الجاحظ: قال جعفر بن محمد الإسكافي: إن عمر وعلياً كانا يضعفان أحاديث أبي هريرة، ويقولان: أكثر على رسول الله.  
    अनुवाद: “उमर और अली, दोनों अबू हुरैरा की हदीसों को कमजोर मानते थे और कहते थे: उसने रसूलुल्लाह ﷺ पर बहुत कुछ बयान कर दिया है।”
  • इब्न अबी अल-हदीद (Sharh Nahj al-Balagha, vol. 4, p. 68)  وقال علي (ع): ألا إن أكذب الناس ـ أو قال: أكذب الأحياء ـ على رسول الله أبو هريرة الدوسي.  अनुवाद: अली (अ.स.) ने कहा: “रसूलुल्लाह ﷺ पर सबसे अधिक झूठ बाँधने वाला व्यक्ति अबू हुरैरा दोस्सी है।”
    (यह शिया और मुतज़िला स्रोतों में आता है, सुन्नी हदीस-संग्रहों में नहीं।)

2. बनी उमय्या से संबंध

  • रीज़ाल अल-कश्शी (p. 49):كان أبو هريرة من الموالين لبني أمية، وكان يروي لهم ما يحبّون.अनुवाद: “अबू हुरैरा बनी उमय्या के समर्थक थे और उनके लिए वही बयान करते थे जो उन्हें पसंद था।”

3. तद्लीस (स्रोत छिपाना) का आरोप

  • शूबा (Ibn ‘Adī, al-Kāmil; Tārīkh Dimashq, vol. 67, p. 359):अबू हुरैरा “तद्लीस”(युदल्लिसु) करते थे — यानी काब अल-अहबार से सुनी हुई बात और पैग़म्बर ﷺ से सुनी हुई बात को अलग-अलग साफ़ न बताते।

सुन्नी विद्वानों से बचाव

1. इब्न हजर (Tahdhib al-Tahdhib, vol. 12, p. 281)

  أبو هريرة حافظ الصحابة، وأكثرهم حديثاً على الإطلاق، واتفق الأئمة على ثقته وعدالته.  

अनुवाद:“अबू हुरैरा सहाबा के हाफ़िज़ थे और सबसे अधिक हदीस बयान करने वाले थे। सभी इमामों ने उनकी विश्वसनीयता और न्यायप्रियता पर सहमति जताई।”

2. अल-धाहबी (Siyar A‘lam al-Nubala, vol. 2, p. 578)

  كان أبو هريرة حافظاً، ثبتاً، كثير الحديث، صادقاً في نقله.  

अनुवाद:“अबू हुरैरा हाफ़िज़ थे, बहुत हदीसें बयान करते थे, और अपनी रिवायतों में सच्चे थे।”

यानी सुन्नी विद्वानों का सर्वसम्मति यह है कि उनकी रिवायतें भरोसेमंद हैं और आलोचना अनुचित है।


आधुनिक आलोचक और ओरिएंटलिस्ट

1. इग्नाज़ गोल्डज़ीहर

Muslim Studies (vol. 2, p. 138)

“यहाँ तक कि अली और आयशा ने भी अबू हुरैरा की रिवायतों पर शक जताया।”

उदाहरण:
इब्न उमर (रज़ि.) का हवाला दिया जाता है कि अबू हुरैरा ने कुत्तों से संबंधित हदीस में “खेती-बाड़ी वाले कुत्ते” की छूट इसलिए जोड़ी क्योंकि उनके पास खुद खेती थी।

जामी` अत-तिरमिज़ी, किताब अल-सैयद 1488
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संतुलन की तस्वीर-

  • शिया और मुतज़िला स्रोत: अबू हुरैरा पर “झूठ गढ़ने” और “बनी उमय्या से सियासी नज़दीकी” का आरोप लगाते हैं।
  • सुन्नी विद्वान: उन्हें हाफ़िज़, सच्चा और सबसे ज़्यादा भरोसेमंद रावी मानते हैं।
  • ओरिएंटलिस्ट और आधुनिक आलोचक: सहाबा की आपसी तकरार और व्यक्तिगत लाभ-हानि की राजनीति को हदीस पर असर डालने वाला मानते हैं।

यह सारी बहस यह दिखाती है कि अबू हुरैरा की शख्सियत हदीस विज्ञान में सबसे विवादित है।
उनके बारे में राय मक़तलन (धार्मिक स्कूल ऑफ थॉट) के हिसाब से बदल जाती है — सुन्नी उन्हें हाफ़िज़ मानते हैं, शिया और आलोचक उन्हें “हदीसों का कारख़ाना” कहते हैं।


2. खलीफ़ा उमर की चेतावनी

Al-Milal wa al-Nihal (Al-Shahrastani); Tarikh al-Madina (Ibn Shabba)

उमर ने अबू हुरैरा से कहा:
“या तो हदीसें बयान करना बंद करो, या मैं तुम्हें निर्वासित कर दूँगा।”


धन और सत्ता का लोभ

अबू हुरैरा पर लालच और भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे।

  • हज़रत उमर ने उन्हें बहरीन का गवर्नर बनाया।
  • गवर्नरी के दौरान उनकी दौलत अचानक बढ़ गई।
  • वापसी पर उमर ने पूछा: “जब तुम आए थे, तुम्हारे पास कुछ न था। अब इतना माल कहाँ से आया?”
  • नतीजा: उन्हें पद से हटाया गया और संपत्ति जब्त की गई।

Tarikh al-Tabari, Vol. 4
Al-Bidaya wa al-Nihaya, Ibn Kathir


सुन्नी स्रोतों में

सुन्नी रवायतों के मुताबिक उमर ने अबू हुरैरा को बहरीन की गवर्नरी से हटाया।

  • शक था कि उनका माल (धन) तनख़्वाह से कहीं ज्यादा है।
  • तनख़्वाह: सिर्फ़ 2000 दिरहम।
  • उमर ने उनसे हिसाब-किताब लिया और कहा:
    “तुम्हारे पास 10 हज़ार दिरहम से ज़्यादा कैसे आ गए जबकि तुम्हें सिर्फ़ 2 हज़ार दिरहम बतौर तनख्वाह मिले थे?”
  • अबू हुरैरा का जवाब: “यह तोहफ़े और कारोबार से आया।”
  • उमर ने कहा: “तुम अल्लाह और मुसलमानों के अमीर के खिलाफ़ काम कर रहे हो।”
  • और आदेश दिया कि वह माल बैतुलमाल में जमा हो, और अबू हुरैरा को बहरीन गवर्नरी से हटा दिया।

1- Ansāb al-Ashrāf, Balādhurī-  (जिल्द 1) → इसमें साफ़ तौर पर आता है कि उमर ने अबू हुरैरा को बहरीन की गवर्नरी से हटाया और उनका माल-जायदाद चेक किया। 

2- Musannaf Ibn Abī Shayba-  (जिल्द 7, हदीस 33984) → इसमें भी उमर और अबू हुरैरा का हिसाब-किताब का ज़िक्र है।

3- इब्न अब्द रब्बिह, al-‘Iqd al-Farīd (जिल्द 4, स. 51) → यहाँ भी उमर द्वारा अबू हुरैरा से माल ज़ब्त करने का हवाला मिलता है।


शिया स्रोतों में

  • शिया आलोचकों के मुताबिक यह वाक़े अबू हुरैरा की अमानतदारी और अदालात (विश्वसनीयता) पर सवाल है।
  • उमर का यह क़दम उनके लिए सबूत है कि अबू हुरैरा भरोसेमंद नहीं थे। अबू हुरैरा पर ग़बन या अमानतदारी में कमी का शक था।
  • साथ ही यह भी कहा जाता है कि वे काब अल-अहबार से इस्राईली किस्से लाकर हदीसों में मिलाते थे।

1- अल-नजाशी, Rijāl al-Najāshī → अबू हुरैरा की शख़्सियत पर आलोचनात्मक राय दी गई है, और उमर वाले वाक़े को इसका सबूत माना गया है।

2- अल-मजलीसी, Bihār al-Anwār (al-Majlisī, जिल्द 33, स. 111–113) → इसमें यह घटना अबू हुरैरा की अदालात पर सवाल उठाने के लिए पेश की जाती है।

3- अल-आमिली, Wasa’il al-Shia में यह घटना अबू हुरैरा की अदालात पर सवाल उठाने के लिए पेश की जाती है।


अबू हुरैरा की संदिग्ध हदीसें

  1. सूरज का कीचड़ में डूबना
    • हदीस: Sahih Bukhari 3199
    • दावा: “सूरज हर रोज़ अल्लाह से इजाज़त लेकर डूबता है।”
    • यह न कुरान (36:38) से मेल खाता है, न विज्ञान से।
  2. शैतान का कुरान सिखाना
    • हदीस: Sahih Bukhari 2311
    • दावा: “रात में शैतान मेरे पास आया और मुझे कुरान सिखाया।”
    • यह बच्चों की दास्तान जैसी लगती है, न कि दीन की गंभीर बात।
Bukhari 3199
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Bukhari 2311
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निष्कर्ष: इंसानी हदीसें, दिव्य नहीं

इतिहास और स्रोत दोनों गवाही देते हैं कि:

  • कई हदीसें राजनीतिक और सांप्रदायिक मक़सदों से गढ़ी गईं।
  • “सहीह” कहलाने के बावजूद इनमें विरोधाभास, अंधविश्वास और सत्ता-समर्थक बातें भरी हैं।
  • इंसान की बनाई रिवायत को “अल्लाह का दीन” कहना गुमराही है।
  • कई हदीसें इंसानियत और नैतिकता के खिलाफ हैं।

सत्ता और फायदा पाने वाली हदीसें

  • “खलीफा की आज्ञा मानो, चाहे वह अत्याचारी हो।”
  • “फसाद से बचो, सब्र करो।”

ऐसी हदीसें सत्ता को मज़बूत करने और विद्रोह दबाने के लिए इस्तेमाल की गईं — न कि इंसानियत और इंसाफ़ के लिए।


अबू हुरैरा की भूमिका

यदि उस दौर में हदीसें सत्ता और फायदे के लिए गढ़ी गईं, तो यह वैसा ही है जैसे आज कोई अफसर पैसा लेकर फर्जी जाति प्रमाण पत्र या मेडिकल सर्टिफिकेट बना देता है।
धर्म की मोहर भी वहाँ बिकाऊ थी।

अबू हुरैरा को इस दृष्टि से देखें तो वे इस्लामी इतिहास के पहले “धार्मिक दलाल” जैसे लगते हैं — जिनकी हदीसों ने इस्लाम की रीढ़ का ढाँचा गढ़ा।


मैं क्यों लिखता हूँ?

मैं किसी मुसलमान व्यक्ति से घृणा नहीं करता।
मेरी समस्या उस कट्टर और जड़ सोच से है, जो:

  • इंसानियत के ख़िलाफ़ बातों को “अल्लाह का आदेश” बताती है।
  • सवाल पूछने वालों को काफ़िर घोषित करती है।
  • जो आज भारत और दुनिया के लिए ख़तरा बन सकती है।

भारत पहले ही 1000 साल की गुलामी और एक बार बंटवारा झेल चुका है।
मैं नहीं चाहता कि मेरा देश 58वाँ ऐसा मुल्क बने जिसकी आज़ादी शरीयत के नीचे कुचल जाए


अबू हुरैरा: सत्ता का ठेकेदार

  • जैसे मुग़लों के दरबार में कवि और इतिहासकारों से झूठी तारीफ़ें लिखवाई जाती थीं…
  • जैसे चर्च में indulgence (पाप माफ़ी प्रमाणपत्र) बेचे जाते थे…
  • वैसे ही अबू हुरैरा सत्ता के लिए हदीसों का ठेका लेकर फ़ायदा उठा रहे थे।

इससे साफ़ है कि हदीसों में इंसानी दख़ल और बदलाव हुआ।


हदीस गढ़ने के प्रमाण

इस्लामी स्रोतों से

  • इब्न सिरिन (मृत्यु 110 हिजरी): “फ़ितना के बाद लोग रावी का नाम पूछने लगे, ताकि झूठी हदीसों से बच सकें।” (मुक़द्दिमा सहीह मुस्लिम)
  • इब्न मुबारक (118–181 हिजरी): “झूठे लोगों ने पैगंबर ﷺ की हदीसें गढ़ी हैं।”
  • इमाम मालिक (93–179 हिजरी): “बहुत से लोग धर्म में झूठी हदीसें घुसा रहे हैं।”

कारण:

  • राजनीतिक (खलीफ़ाओं के पक्ष में हदीसें)
  • फ़िक़्ही (मक़तलिफ़ मज़हब अपने-अपने हक़ में हदीसें)
  • क़स्सास (कहानी सुनाने वाले उपदेशक भीड़ के लिए हदीस गढ़ते थे)

आधुनिक शोध

  • Ignaz Goldziher: ज़्यादातर हदीसें पैगंबर की मौत के 200 साल बाद बनीं।
  • Joseph Schacht: हदीसें असल में 8वीं–9वीं सदी की राजनीतिक ज़रूरतों का नतीजा हैं।
  • Patricia Crone, Michael Cook: इस्लामी क़ानून का बड़ा हिस्सा बाद में “हदीस” की शक्ल देकर पेश किया गया।

सोचने का बिंदु

इंसानियत को जिन बातों से ख़तरा है — क्या वे सचमुच अल्लाह ने ही कही हैं?

अगर मुसलमान यह समझ लें कि:

  • ईश्वर किसी किताब या फ़तवे का मोहताज नहीं है।
  • सही और ग़लत की पहचान हमारी अंतरात्मा खुद कराती है।
  • बलात्कार, हत्या, चोरी जैसे अपराधों के लिए किसी धार्मिक आदेश की ज़रूरत नहीं।

तो विवाद अपने आप समाप्त हो जाएगा।

❝ सच्चा ईश्वर समय और हालात का मोहताज नहीं होता। उसकी शिक्षा हर युग और हर इंसान के लिए न्यायपूर्ण और दयालु होनी चाहिए। ❞


मेरी अपील

आप अपने अल्लाह को मानिए, या ईश्वर, या खुदा को।
लेकिन:

  • जो बातें इंसानियत के ख़िलाफ़ हैं, उन्हें नकारिए।
  • कहिए: “मेरा खुदा ऐसा नहीं हो सकता।”
  • मानिए कि कुरान और हदीस में इंसानी दख़ल हुआ, और सिर्फ़ वही मूल्य अपनाइए जो इंसानियत और न्याय के अनुकूल हों।

अंतिम विचार

मेरी लड़ाई मुसलमान से नहीं, बल्कि उस कट्टर इस्लाम से है जो आज़ादी, इंसानियत और सवाल करने की शक्ति को कुचलना चाहता है।

कई मुसलमान भी यह समझते हैं। इसी से “कुरानिस्ट” समूह बना — जो केवल कुरान को मानता है और हदीसों को नकार देता है।

अगले लेख में हम कुरान की प्रमाणिकता और उसमें संभावित बदलावों पर चर्चा करेंगे। LINK


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