
यह लेख उन महिलाओं को समर्पित है जो किसी मुसलमान से विवाह करना चाहती हैं और कहती हैं, “मेरा अब्दुल ऐसा नहीं।” साथ ही, उन मुस्लिम महिलाओं के लिए भी जो यूनिफॉर्म सिविल कोड (UCC) का विरोध करती हैं, क्योंकि यह लेख आपके महिला अधिकारों से जुड़ा है, जो UCC आपको दे सकता है। कृपया इसे अंत तक पढ़ें और अपने विवेक से सही-गलत का निर्णय लें।
“मेरा अब्दुल ऐसा नहीं” – एक भ्रांति?
कई महिलाएं सोचती हैं कि शादी के बाद वे अपना धर्म निभा सकेंगी या इस्लाम की बंदिशें उन पर लागू नहीं होंगी। लेकिन कुरान क्या कहता है?
सूरह अल-बक़रह (2:221):
“और मुशरिक़ औरतों से निकाह न करो, जब तक कि वे ईमान न ले आएँ… यक़ीनन एक मोमिन दासी मुशरिक़ा से बेहतर है, चाहे वह तुम्हें कितनी ही पसंद क्यों न हो..”
मुशरिक़ का अर्थ है मूर्तिपूजा करने वाला। इस्लाम की नजर में एक मूर्तिपूजा करने वाली महिला से विवाह करने से बेहतर है कि एक गुलाम दासी (सेक्स स्लेव) रखकर शारीरिक जरूरतें पूरी की जाएं। इसका स्पष्ट अर्थ है: जब तक आप इस्लाम स्वीकार नहीं करतीं, आपकी कीमत एक गुलाम दासी से भी कम है। यदि आप इस्लाम स्वीकार किए बिना शादी करती हैं, तो भारतीय संविधान इसे मान्यता देगा, लेकिन आपके पति के परिवार और समाज में आपका संबंध “जिना” (व्यभिचार) माना जाएगा, और आपके बच्चे “नाजायज औलाद” कहलाएंगे। यह सत्य किसी भी इस्लामिक स्कॉलर से सत्यापित किया जा सकता है।
सच्चाई यह है: आपका अब्दुल चाहे कितना भी अच्छा हो, उसे कुरान के खिलाफ जाने की अनुमति नहीं। कुरान कयामत तक अपरिवर्तनीय है। यदि आपका अब्दुल कुरान पर विश्वास नहीं करता, तो वह इस्लाम से खारिज हो जाएगा। आज नहीं तो कल, आपको अपने बच्चों के कानूनी अधिकारों और अपनी शादी की वैधता के लिए इस्लाम अपनाना पड़ेगा। क्या आप यह जोखिम लेना चाहती हैं? जिस तरह आप अपने माता-पिता, परिवार, और समाज को अपने प्यार के लिए छोड़ने को तैयार हैं, क्या आपका अब्दुल आपके लिए इस्लाम छोड़ने को तैयार है?
आइए हम इस विषय को दो दृष्टिकोणों से देखें:
1. इस्लामी ग्रंथों की दृष्टि: इस विषय पर इस्लामी किताबें क्या कहती हैं।
2. कानूनी और संवैधानिक दृष्टि: कानून और संविधान इस विषय को कैसे परिभाषित और नियंत्रित करते हैं।
इस्लामी ग्रंथों की दृष्टि: संख्या और सत्ता का खेल
इस्लाम में विवाह केवल व्यक्तिगत संबंध नहीं है, बल्कि एक रणनीतिक साधन है।
कुरान और हदीस बार-बार यह बताते हैं कि मुसलमानों की संख्या बढ़ाना उनकी शक्ति और प्रभुत्व की कुंजी है।
1. जनसंख्या वृद्धि: धार्मिक आदेश
कुरान 4:3 – “औरतों से निकाह करो, दो-दो, तीन-तीन और चार-चार तक।”
इसका उद्देश्य केवल व्यक्तिगत जीवन नहीं बल्कि जनसंख्या वृद्धि है।
सुन्नन अबू दाऊद 2050 – पैग़ंबर ने कहा:
“उन औरतों से निकाह करो जो अधिक संतान जनने वाली हों, क्योंकि मैं क़ियामत के दिन अपनी उम्मत की अधिक संख्या पर गर्व करूंगा।”
यानी सिर्फ़ बच्चे पैदा करना इस्लामी विवाह का मूल उद्देश्य घोषित किया गया।
हदीस में साफ़ दिखता है कि मुहम्मद ने औरत को उसकी “ममता” या “मानवीयता” से नहीं, बल्कि उसकी “प्रजनन क्षमता” (child-bearing ability) से आँका। अगर औरत सुंदर और सम्मानित परिवार से हो, फिर भी अगर वह संतान पैदा नहीं कर सकती तो उस से निकाह मना किया गया। शादी का उद्देश्य केवल औलाद पैदा करना और संख्या बढ़ाना ठहराया गया।
मुहम्मद ने इसे इस तरह पेश किया कि “मैं क़ियामत के दिन तुम्हारी संख्या पर गर्व करूँगा।”
एक महिला को “गिनती बढ़ाने के औजार” से आँकना, औरतों का अपमान और उनकी गरिमा के खिलाफ़ है।
Sunan an-Nasa’i, Hadith 3227 और Ibn Hibban और Al-Albani ने Sahih al-Targhib (1921) में इस बात कि पुस्टि की है।
2. औरत का दिव्य गुण: मातृत्व
मर्द चाहे 100 हों, वे बच्चे पैदा नहीं कर सकते। लेकिन अगर 100 औरतें हों और सिर्फ़ एक मर्द हो, तो हर साल 100 बच्चे पैदा हो सकते हैं।
यह शक्ति केवल औरत में है – माँ बनने का दिव्य वरदान।
इसलिए इस्लामी राजनीति में औरत मात्र व्यक्ति नहीं बल्कि उम्मत की उत्पादनशक्ति है।
3. “अपनी बेटी मत दो, पर पराई ले लो”
कुरान 5:5 – “तुम्हारे लिए पाक दीन वालों (यहूदी-ईसाई) की पाक महिलाएँ हलाल हैं।”
यानी मुसलमान यहूदियों-ईसाइयों की बेटियों से निकाह कर सकते हैं।
लेकिन उल्टा नियम नहीं है। मुसलमान बेटी किसी गैर-मुस्लिम को नहीं दी जा सकती।
इसका सीधा अर्थ है – बाहरी औरतें लाओ, अपनी औरतें बाहर मत जाने दो।
यानी संख्या एकतरफ़ा बढ़ेगी।
4. सत्ता का समीकरण
यदि 100 पुरुषों में 99 मर जाएँ और 100 महिलाएँ बचें – तब भी हर साल 100 बच्चे होंगे।
लेकिन अगर 100 महिलाओं में 99 मर जाएँ और सिर्फ़ 1 बचे – तो केवल एक बच्चा होगा।
यही कारण है कि इस्लामी रणनीति में औरत को संख्या बढ़ाने की फैक्ट्री बना दिया गया।
“लव जिहाद” कोई भावनात्मक आरोप नहीं है, बल्कि इस्लामी ग्रंथों से निकला हुआ आदेश है।
- पैग़ंबर का हुक्म: अधिक बच्चे पैदा करो।
- कुरान का नियम: गैर-मुस्लिम बेटियों से निकाह करो, पर अपनी बेटी मत दो।
- गणित का नियम: औरत की कोख ही जनसंख्या और सत्ता का असली हथियार है।
इस तरह औरत का दिव्य गुण (माँ बनने की क्षमता) इस्लाम के हाथों राजनीतिक हथियार में बदल गया।
यह सब जानकार भी अगर आप अपने अब्दुल से ही विवाह करना चाहती हैं तो आइये भविष्य कि तुलना भी कर लेते हैं
कानूनी और संवैधानिक दृष्टि: कानून और संविधान
कानूनी और सामाजिक तुलना: आपके अधिकार कितने सुरक्षित हैं?
आइए, भारतीय संविधान, हिंदू पर्सनल लॉ, और मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत महिलाओं के अधिकारों की तुलना करें। यहाँ संपत्ति, बच्चों पर अधिकार, तलाक, धर्म परिवर्तन, गोद लेना, बहुविवाह, और धार्मिक सभाओं में भागीदारी जैसे मुद्दों को शामिल किया गया है।
1. संपत्ति में अधिकार
भारतीय संविधान:
अनुच्छेद 14 (समानता), अनुच्छेद 15 (लिंग आधारित भेदभाव निषेध), और अनुच्छेद 300A (संपत्ति का अधिकार) महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार देते हैं।
हिंदू पर्सनल लॉ:
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 (HSA) के 2005 संशोधन के तहत, बेटियों को पैतृक संपत्ति में बेटों के समान हिस्सा मिलता है। विधवाओं को भी पति की संपत्ति में बराबर हिस्सा मिलता है।
उदाहरण: धारा 6 (HSA, 2005) के तहत, बेटी का जन्म से ही पैतृक संपत्ति में अधिकार है।
मुस्लिम पर्सनल लॉ:
शरिया के अनुसार (सूरह अन-निसा, 4:11-12), बेटी को बेटे की तुलना में आधा हिस्सा (2:1) और विधवा को पति की संपत्ति का केवल 1/8 हिस्सा (12.5%, बच्चे होने पर) या 1/4 हिस्सा (25%, बिना बच्चे) मिलता है।
आयत: “पुरुष का हिस्सा दो महिलाओं के हिस्से के बराबर है” (4:11).
चुनौती: यह लिंग आधारित असमानता संवैधानिक समानता (अनुच्छेद 14) से टकराती है। इस्लाम अपनाते ही आपकी कीमत—चाहे संपत्ति हो या गवाही—पुरुष की तुलना में आधी हो जाती है।
2. बच्चों पर अधिकार (संरक्षकता)
भारतीय संविधान:
संरक्षकता और वार्ड्स अधिनियम, 1890 (GWA) के तहत, बच्चे का कल्याण सर्वोपरि है। माता-पिता दोनों को समान अधिकार हैं।
हिंदू पर्सनल लॉ:
हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम, 1956 (HMGA) के तहत, माता को छोटे बच्चों (5 वर्ष से कम) की कस्टडी में प्राथमिकता मिलती है। 5 वर्ष के बाद भी माता की आर्थिक स्थिति उसे कस्टडी के लिए प्राथमिकता देती है।
उदाहरण: धारा 6 (HMGA) माता को प्राकृतिक संरक्षक के रूप में मान्यता देता है।
मुस्लिम पर्सनल लॉ:
माता को “हिजानत” (कस्टडी) का अधिकार है, लेकिन यह सीमित है: लड़कों के लिए 7 वर्ष तक, लड़कियों के लिए यौवन (हैज/पीरियड) तक। इसके बाद, पिता को प्राथमिक संरक्षकता मिलती है। तलाक के बाद माता के अधिकार और सीमित हो जाते हैं, खासकर यदि वह पुनर्विवाह करती है।
हदीस: “माता को बच्चों की हिजानत का अधिकार है जब तक कि वह पुनर्विवाह न कर ले” (सहीह बुखारी, 5203).
चुनौती: पुरुष पुनर्विवाह करे, तो उसका अधिकार बरकरार रहता है, लेकिन माता का नहीं। क्या यह माँ की ममता पर प्रश्नचिह्न नहीं? क्या यह समानता के अधिकार का हनन नहीं?
3. तलाक में अधिकार
भारतीय संविधान:
विशेष विवाह अधिनियम, 1954 (SMA) और धारा 125 (CrPC) के तहत, तलाक और गुजारा भत्ता लिंग-तटस्थ हैं। महिला भी तलाक ले सकती है और गुजारा भत्ता की पात्र रहती है।
हिंदू पर्सनल लॉ:
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) के तहत, महिलाओं को तलाक लेने के लिए समान आधार (क्रूरता, परित्याग) और गुजारा भत्ता मिलता है।
मुस्लिम पर्सनल लॉ:
पुरुष को “तलाक” का एकतरफा अधिकार है (सूरह अल-बकरा, 2:229), जबकि महिला को “खुला” के लिए मेहर वापस करना पड़ सकता है या पति की मांग पर मुआवजा देना पड़ सकता है। गुजारा भत्ता केवल “इद्दत” (3 महीने) तक सीमित है।
आयत: “तलाक दो बार तक हो सकता है; फिर या तो उसे भले तरीके से रखो या छोड़ दो” (2:229).
चुनौती: खुला प्रक्रिया जटिल है, और गुजारा भत्ता न मिलना महिलाओं को आर्थिक रूप से कमजोर करता है। क्या यह समानता है, जब एक महिला, जिसने जीवन बुर्के में गुजारा या मदरसे की तालीम ली, तलाक के बाद अपने और अपने बच्चे के भविष्य का निर्माण कैसे करेगी? शाहबानो केस (1985) में सुप्रीम कोर्ट ने गुजारा भत्ता के पक्ष में निर्णय दिया, लेकिन राजनीतिक दबाव में मुस्लिम पर्सनल लॉ को प्राथमिकता दी गई। विडंबना यह है कि इस विरोध में महिलाएं भी शामिल थीं।
4. धर्म परिवर्तन
भारतीय संविधान:
अनुच्छेद 25 धर्म की स्वतंत्रता की गारंटी देता है, जिसमें धर्म परिवर्तन का अधिकार शामिल है। इससे विवाह स्वतः समाप्त नहीं होता।
हिंदू पर्सनल लॉ:
धर्म परिवर्तन से संपत्ति या संरक्षकता के अधिकार प्रभावित हो सकते हैं, लेकिन यह लिंग-विशिष्ट नहीं है। विवाह तब तक समाप्त नहीं होता, जब तक कोई पक्ष अलग न होना चाहे।
मुस्लिम पर्सनल लॉ:
यदि पति या पत्नी इस्लाम छोड़ दे, तो विवाह स्वतः समाप्त हो सकता है। गैर-मुस्लिम पुरुष से विवाह के लिए महिला को इस्लाम अपनाना अनिवार्य है।
हदीस: “इस्लाम हर धर्म पर श्रेष्ठ है, और कोई अन्य धर्म इसके साथ बराबरी नहीं कर सकता” (सहीह मुस्लिम, 1163).
चुनौती: यह संवैधानिक धर्म स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25) से टकराता है, क्योंकि धर्म परिवर्तन की शर्त विवाह और बच्चों की वैधता को प्रभावित करती है।
5. गोद लेना (एडॉप्शन)
भारतीय संविधान:
जुवेनाइल जस्टिस एक्ट, 2015 (JJ Act) के तहत, एकल महिलाएं, पुरुष, या दंपति गोद ले सकते हैं। गोद लिए बच्चे का सम्पति पर सगेबच्चे के बराबर अधिकार।
हिंदू पर्सनल लॉ:
हिंदू दत्तक और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 (HAMA) एकल महिलाओं को गोद लेने का अधिकार देता है। गोद लिए बच्चे का सम्पति पर सगेबच्चे के बराबर अधिकार।
मुस्लिम पर्सनल लॉ:
शरिया में गोद लेने का प्रावधान नहीं है। “कफाला” (पालन-पोषण) में बच्चे को कानूनी उत्तराधिकारी का दर्जा नहीं मिलता।
आयत: “अल्लाह ने तुम्हारे गोद लिए हुए बेटों को तुम्हारे असली बेटे नहीं बनाया” (सूरह अल-अहज़ाब, 33:4).
चुनौती: गोद लेने की कमी मातृत्व के अधिकार को सीमित करती है। यदि मेडिकल कारणों से संतान न हो, तो आप बच्चा गोद नहीं ले सकतीं। यदि आप संविधान के तहत गोद लेती हैं, तो आपकी मृत्यु के बाद संपत्ति आपके गोद लिए बच्चे को नहीं, बल्कि रिश्तेदारों को मिलेगी। यदि संतान न होने के कारण आपका पति दूसरा विवाह करता है (जो उसे चार विवाह का अधिकार देता है), तो आपकी स्थिति और असुरक्षित हो जाएगी।
6. बहुविवाह
भारतीय संविधान:
एक समय में एक ही विवाह मान्य है। बहुविवाह अपराध है (IPC धारा 494)। तलाकशुदा महिलाओं को गुजारा भत्ता (धारा 125, CrPC) मिलता है।
हिंदू पर्सनल लॉ:
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 बहुविवाह को निषेध करता है।
मुस्लिम पर्सनल लॉ:
पुरुष को एक समय में चार विवाह की अनुमति है (सूरह अन-निसा, 4:3)। एक समय में चार विवाह का मतलब अगर वो किसी एक पत्नी को तलाक दे दे तो पांचवां विवाह भी कर सकता है, इस तरह कितने भी विवाह कर सकता है कोई लिमिट नहीं।
आयत: “उन औरतों से निकाह करो जो तुम्हें अच्छी लगें – दो, तीन या चार; लेकिन अगर तुम्हें डर हो कि तुम इंसाफ़ नहीं कर सकोगे तो एक ही से निकाह करो, या फिर इंसाफ न कर सको तो निकाह की जगह अपनी गुलाम लौंडी से अपनी शारीरिक जरूरत पूरी करो “ (4:3).
चुनौती: आयत में “इंसाफ” की व्याख्या को महिलाओं के सामने बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है, लेकिन भावनात्मक झुकाव पर कोई पाबंदी नहीं। जबकि यहां इंसाफ का अर्थ है — खर्च, समय, रहन-सहन, और व्यवहार में बराबरी। इसलिए गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले मुसलमान की भी चार बीवियां होती हैं, मतलब जो एक बीवी को खिला रहे वही दूसरी को भी खिला सके तो एक वक्त में चार बीवी रख सकते हो। पर इस इंसाफ में भावनात्मक झुकाव (किसे ज्यादा पसंद करते हो) की कोई पाबंदी नहीं पुरुष किसी एक बीवी को ज्यादा पसंद या प्यार कर सकता है.
कई बार इस इंसाफ शब्द की परिभाषा में स्त्री का मां न बन पाना भी शामिल कर लिया जाता है, इस लेख के लेखक के तौर पर मेरे विचार से “एक महिला सिर्फ माँ बनने के लिए नहीं बनी – वह स्वयं एक पूर्ण जीवन है।”, पर इस्लाम अपनाते ही यह सोच हवा हो जाती है। जबकि अगर ये कमी पुरुष में हो वो पिता बनने में अक्षम हो तो इस पर बात नहीं होती। और यदि आप संतान न दे सकें, तो पति दूसरा विवाह कर सकता है, लेकिन आपकी स्वतंत्रता सीमित रहती है। जो दर्शाता है की इस्लाम में या मुस्लिम पर्सनल लॉ में आप के अधिकार असुरक्षित हो जाते हैं, जबकि संविधान ऐसे मामले में आपकी सुरक्षा सुनिश्चित करता है।
7. मस्जिद में प्रवेश और धार्मिक सभाएं
भारतीय संविधान:
अनुच्छेद 25 और 26 धार्मिक स्वतंत्रता और सभाओं में भागीदारी की गारंटी देते हैं।
उदाहरण: सबरीमाला केस (2018) में, महिलाओं के मंदिर प्रवेश को संवैधानिक अधिकार माना गया।
हिंदू पर्सनल लॉ:
महिलाओं को मंदिरों और धार्मिक सभाओं में समान अधिकार हैं।
मुस्लिम पर्सनल लॉ:
कई मस्जिदों में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध है, जो सामाजिक प्रथाओं पर आधारित है।
हदीस: “मस्जिद में महिलाओं के लिए सबसे अच्छी जगह पीछे की पंक्तियाँ हैं” (सहीह मुस्लिम, 440).
यह प्रतिबंध अक्सर “महिला सुरक्षा” या “बुरी नजर” से बचाने के नाम पर जायज ठहराया जाता है। लेकिन सवाल यह है: मस्जिद में तो सभी ईमान वाले होते हैं, फिर सुरक्षा किससे और बुरी नजर किसकी?
चुनौती: यह संवैधानिक धार्मिक स्वतंत्रता से टकराता है।
8. महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी
कुरान और हदीस:
महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी पर स्पष्ट प्रतिबंध है।
हदीस: “वह कौम कभी सफल नहीं हो सकती जिसने अपने मामलों की ज़िम्मेदारी किसी औरत को सौंपी हो” (सहीह बुखारी, 4425).
उदाहरण: पाकिस्तान में बेनजीर भुट्टो के प्रधानमंत्री बनने (1988) पर इस्लामी दलों (जमात-ए-इस्लामी, देवबंदी, सलफी उलेमा) ने इस हदीस का हवाला देकर विरोध किया।
भारत में मुस्लिम महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी संविधान के कारण संभव है, न कि इस्लामी शरिया के। यदि संविधान की जगह शरिया लागू हो, तो महिलाएं पर्दे के पीछे कैद हो जाएंगी, जैसा कि इस्लाम के आगमन से पहले मक्का की खदीजा (बिजनेस टाइकून), सफिया (बनु कुरैजा की रानी), मायमूना (बनु हाशिम की रानी), और उम्मे किरफा जैसी महान और शक्तिशाली महिलाएं पर्दे में कैद हो गई थीं।
9. अन्य महिला विरोधी मान्यताएं
- पति की मृत्यु के बाद संपत्ति का केवल 1/8 हिस्सा (12.5%)।
- बेटी की शादी यौवन (हैज/पीरियड) के बाद जायज, बिना उम्र या परिपक्वता की शर्त।
- पति का हाथ उठाना जायज (सूरह अन-निसा, 4:34).
- यौन इच्छा पूरी करना अनिवार्य, भले ही आपका मन न हो (सूरह अल-बकरा, 2:223; सहीह मुस्लिम, 1436D).
- जहन्नुम में महिलाएं अधिक होंगी (सहीह बुखारी, 304).
निष्कर्ष
भारतीय संविधान महिलाओं को समानता, स्वतंत्रता, और अधिकारों का प्रगतिशील ढांचा देता है। हिंदू पर्सनल लॉ में सुधारों (HSA, HMA, HAMA) ने इसे संवैधानिक मूल्यों के करीब लाया है। इसके विपरीत, मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधारों की कमी के कारण महिलाओं के अधिकार सीमित हैं, जो संवैधानिक समानता से टकराते हैं।
“मेरा अब्दुल ऐसा नहीं” कहने वाली महिलाएं यह समझ लें: आपका अब्दुल कुरान और हदीस से बंधा है, जो कयामत तक अपरिवर्तनीय हैं। यूसीसी का विरोध करने वाली मुस्लिम महिलाएं स्वयं अपनी स्वतंत्रता और अधिकारों के खिलाफ खड़ी हैं।
लव जिहाद शब्द गुस्सा और कौतूहल दोनों जगाता है। भारतीय संविधान आपको जीवनसाथी चुनने की आजादी देता है, लेकिन यह आजादी आपके अधिकारों को असीमित शक्ति दे सकती है या आपको एक उपभोग की वस्तु तक सीमित कर सकती है।
सवाल पूछिए: जिस तरह आप अपने माता-पिता, परिवार, और समाज को अपने प्यार के लिए छोड़ने को तैयार हैं, क्या आपका अब्दुल आपके भविष्य की कानूनी सुरक्षा के लिए इस्लाम छोड़ने को तैयार है?
तो अगली बार यूसीसी का विरोध करने से पहले सोचिए: तलाक, बहुविवाह, संपत्ति में बराबर अधिकार, और गोद लेने जैसे मुद्दों पर यूसीसी से आपको क्या समस्या है? या आपके धार्मिक नेताओं ने आपको सीएए की तरह झूठ बोला कि इससे नागरिकता चली जाएगी?
सोचिए, समझिए, और अपने विवेक से निर्णय लीजिए।
धन्यवाद
