
मैं हु असली मोमिन-
हाँ, मैं ही हूँ।
वो आदमी, जिसे देखकर लोग कहते हैं – “ये तो गुमराह है!”
लेकिन सोचिए — गुमराह करता कौन है? कुरान कहती है: “अल्लाह जिसे चाहे गुमराह कर दे।” (16:93)
तो अगर मैं गुमराह हूँ, तो क्या सच में गुनाहगार मैं हूँ? या फिर ये “ऑर्डर” ऊपर से आया है?
अब बताइए — अल्लाह की मर्ज़ी से गुमराह होना भी गुनाह है क्या?
मैं किताबें पढ़ता हूँ। कुरान खोलता हूँ। हदीस पलटता हूँ।
जितना पढ़ता हूँ, उतने सवाल उठते हैं।
और जब सवाल पूछता हूँ, तो लोग घबरा जाते हैं।
कहते हैं – “ये मत पूछो, ये मत सोचो।”
पर भाई, अगर दिमाग को बंद ही रखना था तो ऊपरवाले ने दिया क्यों?
क्या सिर्फ़ टोपी टिकाने के लिए?
कुरान कहती है: “अल्लाह और उसके रसूल का कहना मानो।” (4:59)
अब बताइए, उनका कहना कहाँ मिलेगा? व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी से? या फिर किताबों से?
अगर मैं किताबें पढ़ रहा हूँ, तो मैं ही उनका कहना मान रहा हूँ।
तो असली मोमिन कौन हुआ? मैं… या वो जो बिना पढ़े बस “आमीन-आमीन” करता घूम रहा है?
और हाँ, जब मैं कहता हूँ – “मैं तुमसे ज़्यादा मोमिन हूँ” तो लोग बुरा मान जाते हैं।
अरे भाई, बुरा मत मानो—कुरान तुमने खोली ही नहीं, मैंने खोली है।
तुम्हें पता ही नहीं अंदर क्या लिखा है, और मैं रोज़ देखता हूँ।
तो बताओ—कौन ज़्यादा करीब है अल्लाह और रसूल के?
हाँ, डर भी है।
जितना कुरान-हदीस पढ़ो, उतना शक बढ़ता है।
जितना सवाल करो, उतना जान का खतरा बढ़ता है।
कभी-कभी लगता है—सवाल पूछना इस्लाम में सबसे बड़ा गुनाह है।
कुरान ही कहती है: “ऐ ईमान वालों! ऐसी बातों के बारे में सवाल मत करो…” (5:101)
मतलब सवाल पर पाबंदी।
वाह! जिस दीन को “हक़” कहा जाता है, वो सवाल से डर गया?
इस खेल का असली नियम यही है:
अगर सवाल पूछो तो काफ़िर, गुमराह, मुनाफ़िक।
अगर चुप रहो तो मोमिन।
यानी “सोचो मत, पूछो मत, बस मानो।”
लेकिन मेरा मानना है—
अगर अल्लाह ने दिल दिया है, दिमाग़ दिया है, और किताब दी है,
तो उसका इस्तेमाल करना ही असली ईमान है।
इसीलिए मैंने शुरू की ये वेबसाइट: aslimomin.com।
यहाँ मैं अपने सवाल लिखता हूँ, अपनी खोज रखता हूँ, और किताबों से निकली बातें आप तक लाता हूँ।
आप पढ़िए, गुस्सा कीजिए, हँसिए, जवाब दीजिए—
लेकिन मुझे चुप मत कराइए।
क्योंकि अगर आप मुझे चुप कराते हैं—
तो आप असली मोमिन नहीं,
बल्कि डरपोक अंधभक्त हैं,
जिसे अपने ही दीन की किताबों से डर लगता है।
यहाँ आपको सिर्फ़ लेख ही नहीं, बल्कि सवाल भी मिलेंगे — मेरी “सवालों की किताब” से चुने हुए।
यह जगह सबके लिए खुली है — चाहे आप तालीबे-इल्म हों, शोधकर्ता हों या पक्के आस्थावान।
आप जो भी हैं, आपका स्वागत है।
यहाँ आप नए सवाल पाएँगे, पुराने नज़रियों को चुनौती देंगे, और शायद अपने ही जवाबों की तलाश में निकल पड़ेंगे।
मैं क्यों लिखता हूँ और क्यों खोजता हूँ?
क्योंकि आज सोशल मीडिया पर खुलेआम कहा जाता है:
“हम संविधान नहीं मानते, कुरान पहले है।”
“राम मंदिर दुबारा तोड़ देंगे।”
“सर तन से जुदा।”
ये सिर्फ़ गुस्से में कही बातें नहीं हैं — ये एक पूरी विचारधारा है।
और अक्सर इस खतरनाक सोच को “सेक्युलरिज़्म” या “गंगा-जमुनी तहज़ीब” के नाम पर छुपा दिया जाता है।
मगर मेरा सवाल है—ये सोच आई कहाँ से?
ये विचारधारा क्यों और कहाँ से जन्म लेती है?
इन्हें समझना और सच जानना बहुत ज़रूरी है।
ताकि अगली बार जब कोई संविधान या इंसानियत की आड़ लेकर ऐसी बातें करे,
तो हम तैयार हों — आँख मूँदकर नहीं, बल्कि सच्चाई जानकर जवाब दें।
इसीलिए मैं सवाल उठाता हूँ, लिखता हूँ और अपनी सवालों की किताब आपके सामने खोलता हूँ।
मैं तो कहता हूँ—
अगर मैं गलत हूँ तो दलील से हराओ।
अगर तुम्हारी दलील मज़बूत है, तो मैं खुद अपनी वेबसाइट से वो हिस्सा हटा दूँगा और माफ़ी माँग लूँगा।
इतनी ईमानदारी तो रखो—क़ातिल बनने से पहले।
तो हाँ, मैं हँसते हुए कहता हूँ:
मैं हूँ असली मोमिन।
क्योंकि मैं पढ़ता हूँ।
मैं सवाल करता हूँ।
मैं अल्लाह और रसूल को किताबों से जानता हूँ।
बाकी… आप तय कीजिए—
आप असली मोमिन हैं, या भीड़ में खोए अंधभक्त?
