
भूमिका
इस्लामिक राजनीतिक चिंतन में एक दिलचस्प और साथ ही विवादास्पद अवधारणा सामने आती है — “मरूना” (مرونة)।
इसका शाब्दिक अर्थ है लचीलापन (flexibility) या अनुकूलन (adaptability)। सतही दृष्टि से यह विचार आकर्षक लगता है, क्योंकि यह धर्म को कठोर नियमों से बाहर निकालकर वास्तविक जीवन में ढालने का संकेत देता है।
सामान्य अरबी प्रयोग में मरूना का अर्थ निर्दोष रूप से ‘अनुकूलन’ भी हो सकता है। लेकिन जब हम इसे यूसुफ़ अल-क़रदावी जैसे प्रभावशाली इस्लामी चिंतकों की रचनाओं में देखते हैं, तो यह एक अत्यंत रणनीतिक रूप धारण कर लेता है — समाज में घुसपैठ करने, धार्मिक निषेधों को अस्थायी रूप से दरकिनार करने और बाहरी आचरण को ढालने का साधन, जबकि भीतर वैचारिक कठोरता जस की तस बनी रहती है।
यह गम्भीर प्रश्न उठाता है:
- क्या यह सचमुच धार्मिक सहिष्णुता है, या फिर एक सुनियोजित रणनीतिक छल?
- क्या यह “दीन को आसान बनाने” का उपाय है, या “राजनीतिक इस्लाम” का हथियार?
अल-क़रदावी और मरूना की व्याख्या
मरूना की संकल्पना को व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत करने वाले प्रमुख व्यक्ति हैं — यूसुफ़ अल-क़रदावी (1926–2022), जो मुस्लिम ब्रदरहुड के सबसे प्रभावशाली विचारकों में गिने जाते हैं।

अपनी प्रसिद्ध पुस्तक Priorities of the Islamic Movement in the Coming Phase (Fiqh al-Awlawiyyat) में वह लिखते हैं कि:
- मुसलमानों को कठोर literalism (शब्दशः व्याख्या) छोड़कर व्यवहार में लचीलापन दिखाना चाहिए।
- इस “मरूना” से मुसलमान आधुनिक समाज में आसानी से घुल-मिल सकते हैं।
क़रदावी के अनुसार, यह रणनीति मुसलमानों को ऐसी परिस्थितियों में ढलने देती है जहाँ सीधे शरीअत का पालन कठिन हो। कई विश्लेषक मानते हैं कि वे उन मुसलमानों को — जो दावत (प्रचार) और इस्लामी आंदोलन में सक्रिय हैं — ऐसे स्थानों में भाग लेने की छूट देते हैं जो सामान्यतः हराम हैं, जैसे क्लब या शराब परोसे जाने वाले स्थल, बशर्ते उनका उद्देश्य इस्लाम की सेवा हो।
यह विचार कुरआनी सिद्धांत ज़रूरत (दरूरा) से निकला हुआ प्रतीत होता है, किंतु इसे केवल जीवनरक्षा तक सीमित न रखकर रणनीतिक घुसपैठ तक फैला दिया गया है। इस प्रकार, क़रदावी प्रभावी रूप से शरीअत की सीमाओं को बदल देते हैं: जो सामान्यतः हराम है, यदि इस्लामी उद्देश्य साधने में मदद करे, तो उसे अस्थायी रूप से सहनीय घोषित किया जा सकता है।
आलोचक क्या कहते हैं?
आधुनिक इस्लामी अपोलॉजिस्ट्स मरूना को इस्लाम की व्यावहारिकता और समयानुकूलन क्षमता बताते हैं। उनके अनुसार यह बहुधर्मी या सेकुलर देशों में दावत के लिए आवश्यक सांस्कृतिक लचीलापन है।

लेकिन यहीं से विवाद शुरू होता है।
- Jonathan D. Halevi (Jerusalem Center for Public Affairs, 2009) के अनुसार, मरूना वास्तव में एक “camouflage doctrine” है। मुसलमान बाहरी तौर पर “moderate” और “modern” दिखते हैं, लेकिन भीतर से इस्लामी एजेंडा आगे बढ़ाते हैं।
- Caroline Fourest (Brother Tariq, 2008) लिखती हैं कि क़रदावी की यह शिक्षा मुसलमानों को इस्लामी प्रचार के लिए एक तरह का “license” देती है। Fourest के अनुसार मुसलमान क्लबों, आधुनिक जीवनशैली और यहाँ तक कि alcohol-serving places में भी उपस्थित हो सकते हैं, ताकि सामाजिक घुलनशीलता (integration) का प्रदर्शन कर सकें — किंतु असली मक़सद रहता है दावत (Islamic propagation)।
- Lorenzo Vidino (The New Muslim Brotherhood in the West, 2010) का कहना है कि मरूना को integration की भाषा में प्रस्तुत किया जाता है, लेकिन अंतिम लक्ष्य होता है gradual Islamization — समाज को धीरे-धीरे इस्लामी रंग में ढालना।
- Patrick Sookhdeo (2008) इसे “strategic deception” कहते हैं — जहाँ बाहर से उदारता और सहिष्णुता दिखाई जाती है, पर भीतर असली लक्ष्य सत्ता और शरीअत का वर्चस्व ही रहता है।
तक़िय्या और कितमान से समानता
कई विद्वानों ने मरूना की तुलना पुराने सिद्धांतों — तक़िय्या (दबाव में विश्वास छुपाना) और कितमान (सत्य का आंशिक छुपाव) — से की है।

- अंतर यह है कि तक़िय्या रक्षात्मक है, जहाँ जीवन-रक्षा या उत्पीड़न से बचाव हेतु आस्था छुपाई जाती है।
- जबकि मरूना आक्रामक और रणनीतिक है: गैर-मुस्लिम समाजों में घुसपैठ करने और दावत को आगे बढ़ाने के लिए अस्थायी अनुकूलन।
नैतिक दोहरापन
क्या यह शिक्षा एक “दोहरे आचार” को प्रोत्साहित नहीं करती?
- एक सार्वजनिक आचार (गैर-मुसलमानों के लिए दिखावटी उदारता),
- और दूसरा निजी आचार (अपनी ही समुदाय के लिए कठोर शरीअत)?
व्यवहारिक उदाहरण
बहुलतावादी लोकतंत्रों — भारत, यूरोप, अमेरिका — में मरूना कई रूपों में प्रकट होती है:
- राजनीतिक घुसपैठ — धर्मनिरपेक्ष दलों या संस्थानों में शामिल होना, बिना इस्लामी विचारधारा छोड़े।
- सामाजिक छद्मावरण — उदार, सहिष्णु या घुला-मिला दिखना, जबकि भीतर दीर्घकालिक इस्लामीकरण की योजना रखना।
- चुनिंदा नैतिकता — ऐसे कार्य करना जो अन्यथा पाप माने जाते हैं (जैसे विपरीत लिंग से हाथ मिलाना, गैर-मुस्लिम त्योहारों में भाग लेना), बशर्ते इससे दावत का उद्देश्य आगे बढ़े।

यही कारण है कि मुस्लिम ब्रदरहुड की शाखाएँ अक्सर interfaith dialogues में भाग लेती हैं, “modern Muslim voice” के रूप में सामने आती हैं और integration व coexistence की बातें करती हैं। लेकिन आलोचक पूछते हैं:
- यदि मरूना राजनीतिक लाभ के लिए दैवी निषेधों को अस्थायी रूप से दरकिनार करने की अनुमति देता है, तो फिर दैवी क़ानून का वास्तविक अर्थ ही क्या रह जाता है?
- क्या यह केवल political Islam का soft face है, ताकि भविष्य में शरीअत लागू करने का माहौल बन सके?
रणनीतिक पाप की अनुमति?
एक बड़ा प्रश्न यह भी है:
क्या मरूना का अर्थ यह है कि मुसलमान प्रचार या survival के लिए अस्थायी रूप से शरीअत के नियमों को ढीला कर सकते हैं?
उदाहरण:
- किसी non-Muslim समाज में यदि शराब वाले क्लब में जाना दावत के कार्य में सहायक हो, तो वहाँ उपस्थित होना जायज़ मान लिया जाए।
- आधुनिक पहनावे या mixing-up से यदि समाज में जगह मिलती है, तो उसे भी अस्थायी रूप से सहनीय घोषित कर दिया जाए।
इस पर आलोचक कहते हैं कि यह तो “प्रचार के लिए पाप की अनुमति” जैसा है।

मूलभूत प्रश्न
- यदि शरीअत का पालन केवल तब ढीला किया जाए जब मुसलमान अल्पसंख्यक हों, और बहुसंख्यक होते ही कड़ा कर दिया जाए — तो क्या यह नैतिक और धार्मिक रूप से उचित है?
- क्या मरूना सचमुच “धर्म को आसान बनाने” का उपाय है, या फिर “धर्म के नाम पर दोहरी ज़िंदगी” जीने की रणनीति?
- यदि इस्लाम ईश्वरीय सत्य है, तो क्या उसे अपने प्रचार और विस्तार के लिए इस तरह के camouflage और रणनीतिक लचीलेपन की आवश्यकता होनी चाहिए?
निष्कर्ष (खुला प्रश्न, अंतिम निर्णय नहीं)
क़रदावी की प्राथमिकताओं (Fiqh al-Awlawiyyat) में वर्णित मरूना केवल लचीलापन नहीं, बल्कि एक गहरा नैतिक विरोधाभास है — इस्लामी प्रभुत्व के नाम पर शरीअत निषेधों का अस्थायी निलंबन।
- समर्थकों के लिए यह आधुनिक समाज में टिके रहने की एक व्यावहारिक नीति है।
- आलोचकों के लिए यह संस्थागत पाखंड और रणनीतिक छल है, जो pluralistic समाजों में लंबे समय में शरीअत के वर्चस्व का मार्ग तैयार करता है।
👉 असली प्रश्न यही है:
क्या मरूना धार्मिक लचीलापन है, या इस्लामिक राजनीति का नया रूप?
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