
कितमान: धर्मिक छिपावे की धार्मिक तकनीक
प्रस्तावना —
जब कोई मज़हब अपनी रक्षा के लिए झूठ बोलने या सच्चाई छिपाने को वैध ठहरा दे — वह केवल आत्मरक्षा नहीं करता; वह दूसरों को धोखे में रखने की एक धार्मिक कला विकसित करता है। इस्लाम में ऐसी ही एक अवधारणा है — कितमान (Kitman)। यह लेख “कितमान” की परिभाषा, इसकी कुरान-हदीस से पुष्टि तथा ऐतिहासिक और आधुनिक प्रयोगों के उदाहरणों के माध्यम से यह दिखाने की कोशिश करता है कि कैसे अधूरी सच्चाई बोलना इस्लामी राजनीति में एक रणनीतिक गुण बन गया है।
1. कितमान की परिभाषा — सत्य का आधा हिस्सा छुपाना
अरबी मूल: كتمان (Kitman) — छिपाना, गुप्त रखना, प्रकट न करना।
इब्न कसीर जैसे विद्वानों की व्याख्या के अनुसार:
“Kitman is to conceal part of the truth, especially when revealing it would cause harm to Islam or Muslims.”
अर्थात् — कितमान = जानबूझकर आंशिक सच्चाई छिपाना ताकि इस्लाम या मुसलमानों की सुरक्षा बनायी जा सके।
2. कितमान और तक़िया — फर्क क्या है?
- तक़िया (Taqiyya): खुला झूठ बोलना या स्वयं को छिपाना—अक्सर व्यक्तिगत सुरक्षा के लिए प्रयोग। विशेष रूप से शिया परंपरा में इसका उल्लेख मिलता है।
- कितमान (Kitman): आधी सच्चाई बताना या चुप रहना—सामूहिक, संस्थागत या राजनीतिक रणनीति के रूप में। शिया व सुन्नी दोनों संदर्भों में मिलता है।
उद्देश्यगत अंतर: तक़िया व्यक्तिगत जीवन रक्षा; कितमान सामूहिक/राजनीतिक रक्षा।

3. कुरआन और हदीस में कितमान की मान्यता — सन्दर्भ और उद्धरण
- कुरआन 3:28 में संदेश है कि विश्वासियों को गैर-विश्वासियों को खुले तौर पर अपना सहारा न बनाना चाहिए “जब तक कि वे तुम्हारे ख़ुद की रक्षा के लिए न हों” — जिसे कुछ विद्वान तुक़या/कितमान की अनुमति के रूप में पढ़ते हैं।
- अल-ग़ज़ाली जैसे दार्शनिक यह स्वीकार करते हैं कि “A Muslim may lie or conceal the truth if it benefits Islam.” (Ihya Ulum al-Din का संदर्भ)
यह दिखता है कि धार्मिक ग्रंथों और क्लासिकल लेखकों ने कुछ परिस्थितियों में छिपाने या छलने को आलोचनात्मक रूप से नहीं रोका।
4. भारत का संदर्भ — सार्वजनिक विमर्श और आधा सच
भारत में इस्लामी आबादी विश्व की तीसरी सबसे बड़ी है — 2011 की जनगणना के अनुसार लगभग 172 मिलियन मुसलमान (14.2%)। इनमें से अधिकांश सुन्नी-हन्फ़ी हैं, जो मस्जिद, मदरसों और राजनीतिक मंचों पर इस्लामी शिक्षाएँ अधिकतर प्रतिनिधित्व करते हैं।
जब धार्मिक “सद्भाव” की बात आती है, तो बार-बार एक आयत का हवाला दिया जाता है — कुरआन 5:32। परन्तु इसी संदर्भ की अगली आयत 5:33 को अक्सर सार्वजनिक विमर्श में अनदेखा या दबा दिया जाता है। यह वही प्रक्रिया है जिसे हम कितमान कहते हैं — सच का वह हिस्सा जो दिखाया नहीं जाता।
5. आयत 5:32 — शांति का प्रतीक या संदर्भित निर्देश?
आयत 5:32 (सूरह अल-मायदा) अरबी में कहती है:
مِنْ أَجْلِ ذَٰلِكَ كَتَبْنَا عَلَىٰ بَنِي إِسْرَائِيلَ أَنَّهُ مَنْ قَتَلَ نَفْسًا … فَكَأَنَّمَا قَتَلَ النَّاسَ جَمِيعًا
“इसी कारण हमने बनी इस्राईल पर फ़रमान लिखा कि जिसने किसी निर्दोष को मारा, उसने मानो पूरी इंसानियत को मारा।”

यह आयत अक्सर शांति का प्रतीक बनाकर प्रस्तुत की जाती है। कई मुस्लिम नेता और प्रवक्ता इसे उद्धृत करते हैं ताकि यह दिखाया जा सके कि इस्लाम हत्या को नापसंद करता है।
यह पंक्ति अक्सर शांति का प्रतीक दिखायी जाती है और मुसलमानों के अधिकारों और इमेज बिल्डिंग में उद्धृत की जाती है।
परंतु महत्वपूर्ण बिंदु:
- वाक्य स्पष्ट रूप से ‘बनी इस्राईल’ (यानी यहूदियों) के लिए कहा गया है। मुसलमानों के लिए नहीं।
- इसका स्वरूप और तर्क पहले से मौजूद यहूदी कानून (तलमुद, मिशना) से मेल खाता है।
उठने वाले प्रश्न: अगर यह आदेश विशेषकर यहूदियों के संदर्भ में था, तो मुसलमान इसे बार-बार अपने लिए क्यों प्रस्तुत करते हैं? क्या यह आधा सच दिखाकर प्रभाव बनाने की एक रणनीति नहीं है?
6. आयत 5:33 — अगली ही आयत और कठोर दंड
ठीक अगली आयत (5:33) कहती है:
إِنَّمَا جَزَاءُ ٱلَّذِينَ يُحَارِبُونَ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُ وَيَسْعَوْنَ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَسَادٗا أَن يُقَتَّلُوٓاْ أَوۡ يُصَلَّبُوٓاْ أَوۡ تُقَطَّعَ أَيۡدِيهِمۡ وَأَرۡجُلُهُم مِّنۡ خِلَٰفٍ أَوۡ يُنفَوۡاْ مِنَ ٱلۡأَرۡضِۚ
“जो अल्लाह और उसके रसूल से युद्ध करें और धरती में फ़साद फैलाएँ, उनकी सज़ा यही है कि उन्हें कत्ल किया जाए, या सूली पर चढ़ाया जाए, या उनके हाथ-पैर विपरीत दिशाओं से काट दिए जाएँ, या उन्हें देश से निकाल दिया जाए।”
ठीक अगली आयत (5:33) स्पष्ट शब्दों में कहती है कि जो अल्लाह और उसके रसूल से युद्ध करें तथा धरती में फ़साद फैलाएँ, उनकी सज़ा — कत्ल, सूली पर चढ़ाना, हाथ-पैर काटना या निष्कासन — हो सकती है। यह आयत मोहरेबेह/फ़साद फ़िल-अरज़ की श्रेणी में आती है।
यहाँ प्रमुख प्रश्न उठते हैं:
- अगर 5:32 को शांति का संदेश बताकर उजागर किया जा रहा है, तो 5:33 को सार्वजनिक विमर्श में क्यों दबाया जाता है?
- क्या इसका दबाया जाना कितमान का ही उदाहरण नहीं है — वही आधी सच्चाई जो बहस और भावना को नियंत्रित करती है?
- यदि 5:33 सार्वभौमिक है, तो क्या राजनीतिक विरोध, असहमति या व्यवहारिक विरोध तक को “अल्लाह और रसूल से युद्ध” मान लिया जाएगा?
7. शास्त्रीय तफ़सीरों और फिक़्ह का दृष्टिकोण
- इब्न कसीर (Tafsir Ibn Kathir): 5:33 को muharibah (अर्थात् अल्लाह और रसूल से युद्ध) की परिभाषा देता है—इसमें डकैत, विद्रोही और रसूल के आदेश न मानने वाले शामिल बताए गए हैं।
- तफ़सीर अल-जलालैन: इस आयत को शरीयत के कुछ Hudud दंडों का आधार बताता है।
- फिक़्ह (हनफ़ी, शाफ़ी) स्कूलों में “फ़साद फ़िल-अरज़” की परिभाषा इतनी व्यापक रही है कि कुछ मामलों में राजनीतिक विरोध और विद्रोह भी इसमें आ सकते हैं।
इन परम्परागत व्याख्याओं के आधार पर ही आधुनिक शरिया-निर्भारित न्याय प्रणालियों ने कठोर दंड लागू करने के तर्क खोजे।
8. आधुनिक प्रयोग — सजीव उदाहरण
कई आधुनिक इस्लामी देशों में 5:33 तथा उससे जुड़ी अवधारणाएँ आज भी कानून और दंड-नीति में परिलक्षित होती हैं:
- ईरान: “मोहरेबेह” और “फ़साद फ़िल-अरज़” के आरोपों पर प्रदर्शनकारियों और विरोधियों को फाँसी जैसी सज़ाएँ दी जाती हैं (उदाहरण: कुछ हालिया मामलों में)।
- सऊदी अरब: राजनीतिक विरोधियों और कार्यवाहियों को “बग़ावत/फ़साद” के आरोप में कठोर दंडों का सामना करना पड़ता है।
- पाकिस्तान: ब्लास्फेमी व अन्य संवेदनशील मामलों में धार्मिक और राजनैतिक विमर्श को “रसूल से युद्ध” के दायरों में रखकर सख्त कार्रवाई की प्रवृत्ति देखी गयी है।
ये उदाहरण दिखाते हैं कि 5:33 जैसी आयतों के आधुनिक क्रमबद्ध उपयोग का प्रभाव किस तरह समाज और कानून पर पड़ सकता है।

9. कितमान का आधुनिक परिदृश्य — सार्वजनिक चेहरे और निजी इरादे
- बाहरी बयानबाज़ी: पश्चिमी लोकतंत्रों या बहुलतावाद के सामने इस्लामी नेता और प्रवक्ता अक्सर कहते हैं — “इस्लाम शांति का धर्म है” — और 5:32 को उद्धृत करते हैं।
- भीतरूनी संदेश/रणनीति: पश्चिमी लोकतंत्रों में इस्लामी नेताओं की दोहरी बातें
- बाहर: “इस्लाम शांति का धर्म है”
- भीतर: “खिलाफत की स्थापना हमारी ज़िम्मेदारी है”(Ref: Yusuf al-Qaradawi, Ikhwan, Hizb-ut-Tahrir literature)
- बहस में “गंगा-जमुनी तहज़ीब” की बातें, लेकिन अंदरखाने “गज़वा-ए-हिंद” की तैयारी।
- Public Peace, Private Prepping.
10. निष्कर्ष की जगह — प्रश्न आप तक
यह लेख जान-बूझकर निष्कर्ष देने से बचता है और सीधे आपके समक्ष सवाल रखता है:
- क्या भारत में प्रचारक 5:32 का हवाला देते हुए 5:33 को दबा रहे हैं? क्या यह कितमान नहीं है?
- क्या भारतीय मुसलमानों को इन आयतों का पूरा संदर्भ मालूम है?
- अगर मालूम है, तो सार्वजनिक विमर्श में केवल “शांति” का आधा सच क्यों परोसा जाता है?
- क्या लोकतांत्रिक और धार्मिक रूप से विविध भारत में धीरे-धीरे ऐसे विचारों को लागू करने की कोई छिपी चाहत या रणनीति मौजूद है?
11. कितमान — शांति की पृष्ठभूमि नहीं, अधूरी सच्चाई का खोल
कितमान वह नीति है जो सिखाती है: “जब तक सामने वाला तुम्हारी बातों पर विश्वास कर रहा हो, तब तक पूरा सच मत बताओ।” यह न केवल संवाद का गला घोंटने वाली तकनीक है, बल्कि पारदर्शिता का अपमान और धार्मिक विश्वास का धोखा भी है।
अंतिम पंक्तियाँ:
“कितमान वह खामोशी है जो सच्चाई को गला घोंट देती है।”
“जो धर्म सत्य को अधूरा बोलने की छूट दे, वह संपूर्ण सत्य का कभी प्रतिनिधि नहीं हो सकता।”
अगला लेख पढ़ें:
लेख 2: 5:33 और “मोहरेबेह” — रसूल की बात न मानने की सज़ा
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