
परिचय
एक सवाल से शुरुआत करते हैं:
अगर तुम्हारा पति तुम्हें तलाक़ देकर छोड़ दे और तुम्हारे पास न माँ-बाप हों, न भाई—तो पर्दे में रहने वाली तुम अपना पेट कैसे भरोगी? इस्लाम में मर्द जब चाहे तलाक़ दे सकता है, लेकिन औरत अगर छुटकारा चाहती है तो उसे “ख़ुला” लेना पड़ता है—वो भी पति की अनुमति से। तलाक़ के बाद न उचित गुज़ारा-भत्ता, न स्थायी सहारा। तो क्या इसे सम्मान कहा जाए या गुलामी?
मौलवी और मदरसे अक्सर यह दावा दोहराते हैं कि “इस्लाम ने औरत को अधिकार और इज़्ज़त दी।” लेकिन जब कुरान और हदीस की बारीकी से पड़ताल की जाती है, तो यह दावा खोखला साबित होता है।
इस्लामी ग्रंथों में औरत की छवि कहीं “खेती” (कुरान 2:223), कहीं “शैतान का फंदा” (सुनन अबू दाऊद 2151), कहीं “आधी गवाह” (कुरान 2:282), और कहीं “नर्क की बहुसंख्यक बाशिंदा” (सहीह बुखारी 304) के रूप में मिलती है। यही छवि मुस्लिम समाज में औरत की वास्तविक स्थिति तय करती रही है।
Sunan Abu Dawood 2151इस लेख में हम कुरान से लेकर हदीस और फिक़्ह तक की गहराई में उतरेंगे और देखेंगे कि इस्लाम में औरत की असली स्थिति क्या है।
भाग 1: बलात्कार और चार गवाह—न्याय का मज़ाक

1.1 कुरान का नियम
कुरान साफ़ कहती है:
“और जो लोग पाक दामनों पर (व्यभिचार का) इल्ज़ाम लगाएँ और चार गवाह न पेश कर सकें, उन्हें अस्सी कोड़े मारो।”
— (कुरान 24:4)
इस नियम का मतलब यह है कि बलात्कार या व्यभिचार साबित करने के लिए चार मर्द गवाहों की ज़रूरत है।
सहीह बुखारी (हदीस 6827) और सहीह मुस्लिम (हदीस 1691) में ज़िना (व्यभिचार) और बलात्कार के बीच का फ़र्क़ लगभग मिटा दिया गया है।
Sahih Bukhari 6827हदीसों और फिक़्ह की किताबें भी यही कहती हैं। हनफ़ी फिक़्ह (हिदाया, किताब IX) में लिखा है:
अगर औरत बलात्कार का सबूत न दे पाई, तो उस पर ही ज़िना (व्यभिचार) का इल्ज़ाम लगेगा और सज़ा होगी—या तो कोड़े, या फिर पत्थरों से मौत।
1.2 न्याय का उल्टा चेहरा
सोचिए—जब किसी औरत पर जबरन हमला हो रहा हो, तो वह चार मर्द गवाह कहाँ से लाएगी? अगर गवाह न मिले, तो वही पीड़िता खुद मुजरिम घोषित कर दी जाती है।
इब्न कसीर की तफ़सीर (24:4) इस कानून को सख्ती से लागू करने की वकालत करती है।
नतीजा यह हुआ कि:
- बलात्कार का सबूत लगभग असंभव है।
- अगर औरत शिकायत करे और गवाह न हों, तो उसी पर ज़िना का मुक़दमा चल सकता है।
- सहीह बुख़ारी (हदीस 4747) इसकी मिसाल देता है—जहाँ औरत पर गवाह न होने की वजह से खुद व्यभिचार का आरोप लगा।
यानी इस्लामी कानून में बलात्कार पीड़िता ही अपराधिनी बन जाती है।
भाग 2: तलाक़, खुला और हलाला — आज़ादी का झूठा वादा

2.1 तलाक़ और खुला — असमान नियम
इस्लाम में तलाक़ का अधिकार पूरी तरह पुरुष-प्रधान है।
- पुरुष: सिर्फ़ तीन बार “तलाक़” कह दे, शादी खत्म (कुरान 2:229-230; सहीह मुस्लिम 1472C)।
- महिला: उसे तलाक़ का हक़ सिर्फ़ “ख़ुला” के ज़रिये मिलता है, जिसमें पति की सहमति ज़रूरी है। औरत को अपना मेहर लौटाना पड़ता है, कई बार तो उल्टा पति को अतिरिक्त मुआवज़ा देना पड़ता है। लेकिन अंतिम निर्णय फिर भी पुरुष के हाथ में रहता है (सहीह बुखारी 5273)।
यानी मर्द के लिए तलाक़ एक शब्द, और औरत के लिए तलाक़ भीख माँगने जैसा।
2.2 इस्लामी रणनीति: तलाक़ का डर – नियंत्रण का हथियार
भारतीय मुस्लिम समाज में महिलाओं की साक्षरता दर बेहद कम है। नतीजा यह है कि बहुत-सी औरतें हमेशा तलाक़ के डर में जीती हैं। इस्लामी समाज में पुरुष इस डर को औरतों पर नियंत्रण के औजार की तरह इस्तेमाल करते हैं।
हदीस का उदाहरण:
पैग़ंबर मुहम्मद ﷺ ने अपनी बीवियों से कहा:
Sahih Bukhari 4483“अगर तुम मेरी बात नहीं मानोगी, तो मैं तुम्हें तलाक़ दे दूँगा, और अल्लाह मुझे तुमसे बेहतर बीवियाँ देगा।”
(सहीह बुखारी 4483)
इसी घटना पर कुरान की आयत 66:5 नाज़िल हुई।
इससे तीन बातें साफ़ होती हैं:
- पुरुष को अधिकार है कि वह तलाक़ के डर से पत्नी को दबा सके।
- अल्लाह का वादा: “बेहतर औरतें” तलाक़ के बाद मिलेंगी।
- औरत पर दबाव: सवाल मत करो, बस चुप रहो और मान लो।
यानि धर्म की आड़ में तलाक़ औरतों को वश में करने का ज़रिया बना दिया गया।
2.3 हलाला की ज़िल्लत

कुरान 2:230 कहता है:
“…अगर पति उसे (बीवी को) तलाक़ दे दे, तो वह उसके लिए हलाल नहीं जब तक वह किसी और से निकाह न करे और उससे संभोग न कर ले।”
— (कुरान 2:230; तफ़्सीर इब्न कसीर, सहीह बुखारी 2639)
इससे पैदा हुआ “हलाला” का नियम:
- अगर पति तीन बार तलाक़ दे दे, तो औरत फिर से उसी पति से शादी तभी कर सकती है जब वह पहले किसी और आदमी से शादी करे।
- उस दूसरे पति के साथ शारीरिक संबंध बनाना अनिवार्य है।
- अगर वह पति तलाक़ देने को तैयार न हो तो औरत मजबूरी में उसी की पत्नी बनी रहेगी—अपने पहले पति के पास लौटना नामुमकिन।
- सहीह मुस्लिम 1433 – नबी ﷺ ने फ़रमाया: “क्या तुम चाहती हो कि रिफ़ा’आ के पास लौट जाओ? ऐसा नहीं हो सकता, जब तक कि अब्दुर्रहमान तुम्हारा मज़ा न चख ले (यानी शारीरिक संबंध न बना ले)।”
इसका मतलब है कि औरत की ज़िंदगी एक खिलौना है जिसे पुरुष अपने हिसाब से इधर-उधर फेंकते हैं।
2.4 हलाला का अत्याचार
इस प्रथा ने औरत के सम्मान को पूरी तरह कुचल दिया है।
- तीन तलाक़ के बाद, औरत को अपने ही पति के पास लौटने के लिए पहले किसी दूसरे आदमी के साथ “शादी + हमबिस्तरी” करना पड़ता है।
- भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में कई “हलाला माफिया” के केस सामने आए हैं जहाँ मौलवी खुद पैसों के लिए हलाला करते हैं।
- इमाम मालिक की मुवत्ता ( Muwatta Malik, Book 29 (Kitab al-Talaq), Hadith 29.28) इस प्रथा को सही ठहराती है।
सवाल उठता है:
क्या अपनी आज़ादी के लिए औरत को पैसे देकर तलाक़ खरीदना (खुला) और शरीर बेचकर हलाला झेलना सम्मान है?
भाग 3: शादी और सहमति — बचपन की कीमत

3.1 बच्चियों की शादी
कुरान (4:6) कहता है कि यतीम लड़कियों की देखभाल करो और उनके परिपक्व होने तक इंतज़ार करो। लेकिन “परिपक्वता” की कोई स्पष्ट उम्र तय नहीं की गई। नतीजा यह हुआ कि पैग़म्बर की व्यक्तिगत प्रथा ही मानक बन गई।
- सहीह बुखारी (5133) और सहीह मुस्लिम (1422) में दर्ज है कि पैग़म्बर मुहम्मद का निकाह आयशा से हुआ जब वह 6 वर्ष की थीं और हमबिस्तरी (रुख़्सती) तब हुई जब वह 9 वर्ष की थीं।
- यह घटना सिर्फ़ व्यक्तिगत नहीं रही, बल्कि सुन्नत बन गई, और बाद में छोटी उम्र की शादियों को वैध ठहराने का धार्मिक आधार बन गई।
सवाल उठता है: क्या 6–7 साल की बच्ची का “क़बूल है” कह देना उसकी समझ और सहमति का प्रमाण माना जा सकता है?
3.2 कुरान 65:4 — नाबालिग लड़कियों का निकाह

कुरान की सूरा अत-तलाक (65:4) कहती है:
“और तुम्हारी औरतों में से जो माहवारी से निराश हो चुकी हैं उनकी इद्दत तीन महीने है, और उन्हीं पर भी लागू होती है जिन्हें अब तक माहवारी नहीं आई है…”
यहाँ “जिन्हें माहवारी नहीं आई” का स्पष्ट मतलब नाबालिग लड़कियाँ हैं।
- तफ़्सीर इब्न कसीर: “यह उन लड़कियों के बारे में है जो इतनी छोटी हैं कि उन्हें अब तक मासिक धर्म नहीं आया।”
- तफ़्सीर अल-जलालैन: “और वे जिनको मासिक धर्म नहीं आया — क्योंकि वे बहुत छोटी हैं।”
तलाक़ और इद्दत का नियम उन्हीं पर लागू हो सकता है जिनकी पहले से शादी हुई हो। यानी यह आयत सीधे-सीधे नाबालिग लड़कियों से निकाह को वैध ठहराती है। यह आयात शादी की न्यूनतम आयुसीमा को समाप्त कर देती है।
3.3 इस्लाम में महिला को शादी की अनुमति देने की आवश्यकता?
इस्लामिक शरिया के अनुसार, कई प्रमाणों के आधार पर यह स्पष्ट है कि एक कुंवारी या वर्जिन लड़की की चुप्पी (साइलेंस) ही उसकी शादी की अनुमति मानी जाती है, और उसकी स्पष्ट सहमति की आवश्यकता नहीं होती।

- सही बुखारी
हज़रत आयशा को स्वयं पता भी नहीं था कि उनकी शादी हो रही है। सही बुखारी 3894 में हज़रत आयशा की शादी के बारे में वर्णन किया गया है। इस हदीस के अनुसार: “नबी ﷺ ने मुझे छह साल की उम्र में सगाई की थी। हम मदीना आए और बानी हारिस बिन ख़ज़राज़ के घर में ठहरे। फिर मुझे बुखार हो गया और मेरे बाल झड़ने लगे। बाद में मेरे बाल फिर से बढ़े और एक दिन मेरी माँ उम्म रुमान मुझे खेलने से बुलाकर घर के दरवाजे पर खड़ा कर दिया। फिर उन्होंने मुझे अंदर ले जाकर मुझे सजाया और नबी ﷺ ने मुझे सुबह के समय उनके पास भेज दिया। उस समय मेरी उम्र नौ साल थी।” - हज़रत आयशा उस समय इतनी छोटी थीं कि उन्हें अपनी शादी का पूरा मतलब या घटनाओं का एहसास नहीं था। यह दर्शाता है कि उस समय लड़की की व्यक्तिगत सहमति की कोई औपचारिक आवश्यकता नहीं मानी जाती थी।
- सही बुखारी 5137
इस हदीस में कहा गया है कि कुंवारी लड़की की चुप्पी उसकी अनुमति के बराबर होती है। यानी अगर लड़की विरोध नहीं करती, तो उसकी शादी शरिया के अनुसार जायज़ है। - सुनन इब्न माजा 1870 और जामियात तिरमिजी 1107
इन हदीसों में भी यही सिद्धांत सामने आता है कि लड़की की चुप्पी का मतलब उसकी सहमति है। - शरीयत मैनुअल
शरिया की पुस्तकों में भी यह नियम दर्ज है कि वर्जिन लड़की की अनुमति के लिए उसकी सक्रिय सहमति अनिवार्य नहीं है; उसकी मौन स्वीकृति पर्याप्त है। - फातिमा से संबंधित हदीस – अबू बकर और उमर का विवाह का प्रस्ताव
हज़रत अबू बकर और उमर (رضي الله عنهما) ने हज़रत फातिमा (رضي الله عنها) से विवाह का प्रस्ताव दिया था, लेकिन हज़रत मुहम्मद ﷺ ने इसे ठुकरा दिया।
उन्होंने कहा: “إنها صغيرة”
“वह छोटी हैं।”
(सुनन अन-नसाई 3221)
अब यहाँ सोचने वाली बात यह है कि मुहम्मद को यह ज्ञान था कि फातिमा छोटी है और बड़ी उम्र वाले से उसका निकाह जायज या सही नहीं है मगर खुद आयशा से निकाह करते समय उन्हें इस बात का ध्यान नहीं था ? यह दर्शाता है कि व्यक्तिगत हित और परिपक्वता के आधार पर फैसले लिए जा सकते हैं, भले ही स्वयं लड़की या पिता की राय अलग हो।
3.5 निकाह: प्यार या सौदा?

कुरान 4:24 में निकाह को सीधे-सीधे लेन-देन के रूप में परिभाषित किया गया है:
“…जिन औरतों से तुम आनंद उठाओ, उन्हें उनकी मजदूरी (उजूरहुन्ना) दो…”
यहाँ “उज्र/उजूर” का प्रयोग हुआ है, जिसका अर्थ मजदूरी या भुगतान होता है। यानी निकाह एक कॉन्ट्रैक्ट है जिसमें महिला की सहमति, भावनाएँ या इच्छा गौण हैं—मुख्य चीज़ है उसका “उपयोग” और बदले में भुगतान।
3.6 सच का सवाल
- क्या तुम अपनी 6 साल की बेटी को ब्याह दोगे?
- क्या “निकाह” जिसे अरबी में सेक्स-कॉन्ट्रैक्ट कहा गया है, एक पवित्र रिश्ता है या सिर्फ़ सौदा?
- क्या औरत का दर्जा यहाँ इंसान का है या सिर्फ़ एक मजदूरी लेने वाली वस्तु का?
इस तरह, इस्लाम में शादी और सहमति के नियम बचपन से ही औरत की स्वतंत्रता छीन लेते हैं।
भाग 4: आज्ञाकारिता और यौन गुलामी — तुम्हारी मर्ज़ी कहाँ?
4.1 पति का हुक्म

कुरान और हदीस स्पष्ट करते हैं कि पत्नी की ज़िंदगी पति की आज्ञाकारिता पर टिकी है।
- कुरान (4:34): “मर्द औरतों के रक्षक और प्रभारी हैं…”
यानी पत्नी हर हाल में पति की अधीनस्थ है। - सहीह मुस्लिम (1436d):
“अगर औरत अपने पति की बिस्तर की पुकार का जवाब न दे और पति नाराज़ होकर सो जाए, तो फ़रिश्ते सुबह तक उस औरत पर लानत भेजते रहते हैं।” - सहीह बुखारी (3237):
पैग़म्बर ने कहा: “अगर पत्नी पति के बिस्तर की पुकार को ठुकरा दे और पति गुस्से में सो जाए, तो फ़रिश्ते उस पर सुबह तक लानत भेजते हैं।”
यानी औरत का अपने शरीर पर कोई अधिकार नहीं—उसका शरीर पति की “मल्कियत” (जायदाद) है।
4.2 औरत को ‘खेती’ कहना

कुरान (2:223):
“तुम्हारी औरतें तुम्हारी खेती हैं, जिस तरह चाहो अपनी खेती में आओ।”
इस आयत की पृष्ठभूमि (असबाब-ए-नुज़ूल) तफ़सीरों में दर्ज है:
- तफ़सीर तबररी (जामिउल बयान, खंड 2, पृ. 471–472): यह आयत उस वक़्त नाज़िल हुई जब उमर इब्न अल-ख़त्ताब ने अपनी पत्नी से पीछे से संभोग किया और परेशान होकर नबी से पूछा।
- तफ़सीर इब्न कसीर (2:223): यहाँ “पीछे से आना” को जायज़ ठहराया गया, बशर्ते कि योनि में प्रवेश हो।
- सहीह बुखारी (4528, किताब अल-तफ़सीर): इब्न उमर ने कहा, “यह आयत उस आदमी के बारे में उतरी जिसने अपनी बीवी से पीछे से संभोग किया।”
- सहीह मुस्लिम (1435a, किताब अल-निकाह): “योनि में पीछे से या सामने से, जैसा चाहो, बशर्ते कि वही जगह (योनि) हो।”
यानी पत्नी की पहचान महज़ “खेती” के रूप में—जिसे जैसे चाहो इस्तेमाल करो। उसका अस्तित्व पति की यौन संतुष्टि और प्रजनन तक सीमित कर दिया गया।
4.3 औरत = “बच्चे पैदा करने की मशीन”

इस्लामी हदीसों में औरत की अहमियत उसकी प्रजनन क्षमता (child-bearing ability) से जोड़ी गई है।
हदीस:
“उन औरतों से निकाह करो जो ज़्यादा संतान जनने वाली हों, क्योंकि मैं क़ियामत के दिन अपनी उम्मत की संख्या पर गर्व करूँगा।”
(सुनन अबू दाऊद 2050; पुष्टि: Sunan an-Nasa’i 3227)
मतलब:
- अगर औरत सुंदर और अच्छे परिवार से हो, लेकिन संतान पैदा न कर सके तो उससे निकाह मना।
- शादी का उद्देश्य केवल “औलाद और संख्या बढ़ाना” बना दिया गया।
- पैग़ंबर ने इसे गर्व की वजह बताया।
क्यों यह अमानवीय है?
- औरत का अपमान – उसे सिर्फ़ “माँ बनाने की मशीन” समझा गया।
- बाँझ औरत की बेइज़्ज़ती – जिनसे औलाद न हो सके उन्हें नीचा दिखाया गया।
- शादी का असली मकसद खोना – प्यार, भरोसा और साथ की जगह सिर्फ़ बच्चे पैदा करना प्राथमिकता बन गया।
- संख्या-आधारित गर्व – समाज की नैतिक गुणवत्ता नहीं, बल्कि सिर्फ़ “गिनती” अहम ठहराई गई।
4.4 नतीजा: पत्नी = यौन और प्रजनन वस्तु

कुरान और हदीस की यह शिक्षा औरतों को इंसानियत या सम्मान से नहीं, बल्कि औलाद पैदा करने की क्षमता से आँकती है। यह आधुनिक मानवीय मूल्यों के खिलाफ़ है और स्त्रियों की गरिमा को ठेस पहुँचाती है। यह आयत और हदीसें साफ़ बताती हैं कि:
- पत्नी का शरीर उसकी अपनी संपत्ति नहीं, बल्कि पति की जायदाद है।
- पत्नी की “ना” का कोई मूल्य नहीं; उसे हमेशा “हाँ” कहना है।
- सेक्स का तरीका तक धर्मग्रंथों में निर्धारित किया गया—मानो औरत सिर्फ़ उपभोग की वस्तु हो।
4.5 सच का सवाल
- क्या यह “प्यार” और “बराबरी” है या सिर्फ़ यौन गुलामी?
- अगर पत्नी की सहमति का कोई महत्व नहीं, तो क्या उसे इंसान माना गया या केवल पति की खेती?
- क्या यही है वह “सम्मान” जिसका दावा किया जाता है?
इस तरह इस्लाम औरत की यौन स्वतंत्रता को पूरी तरह कुचल देता है।
भाग 5: पर्दा और गैरबराबरी — बोझ सिर्फ़ तुम पर

5.1 अनिवार्य पर्दा
- कुरान 24:31: “औरतें अपनी ज़ीनत (सौंदर्य) छुपाएँ और अपनी छाती दुपट्टे से ढकें।”
- कुरान 33:59: “ऐ नबी, अपनी बीवियों और मोमिन औरतों से कहो कि जब बाहर जाएँ तो चादर ओढ़ लिया करें।”
नतीजा यह कि औरत को “फितना” (प्रलोभन) कहकर पूरी तरह ढकने का बोझ उसी पर डाल दिया गया।
सहीह बुखारी (146): यह आयत उमर की जिद से नाज़िल हुई कि औरतें पूरी तरह ढकी रहें।
Sahih Bukhari 146सवाल: अगर औरत का शरीर “फितना” है तो मर्द की नज़र और हवस पर रोक क्यों नहीं?
5.2 यात्रा पर रोक

सहीह बुखारी (1088):
पैग़म्बर ने कहा: “कोई औरत बिना महरम (पुरुष रिश्तेदार) के सफ़र न करे।”
यानी औरत अपनी ज़िंदगी की आज़ादी खो देती है। वह अकेले सफर नहीं कर सकती, नौकरी या शिक्षा के लिए निकलना भी किसी “पुरुष रिश्तेदार” की अनुमति पर निर्भर है।
5.3 सच का सवाल
मर्द खुले घूमे, औरतें घुट-घुटकर पर्दे में रहें।
क्या यह बराबरी है या सिर्फ़ औरत पर थोपा गया बोझ?
भाग 6: हिंसा और शासन — तुम्हारी कीमत क्या?

6.1 पति का पत्नी को मारने का हक़
कुरान 4:34:
“…और जिन औरतों की नाफ़रमानी (نُشُوزَ / nushūz) का तुम्हें डर हो, उन्हें समझाओ, बिस्तर अलग कर दो, और उन्हें मारो (وَاضْرِبُوهُنَّ / wa-ḍribūhunna)।”
यहाँ अरबी शब्द wa-ḍribūhunna का अर्थ है “मारो”।
दोहरे मापदंड:
- अगर मर्द से नुशूज़ (अवज्ञा) हो तो कुरान 4:128 में आदेश है: “सुलह कर लो।”
- अगर औरत से नुशूज़ हो तो आदेश है: “उन्हें मारो।”
ज्यादातर आयतों में कोष्ठक लगा कर आलिमों ने अपने शब्द डाले ताकि आयतों को सामान्य दिखाया जा सके पर जब आप अरबी शब्दों का मतलब देखते हैं तो सच सामने आता है।
सहीह मुस्लिम (974b) सुनन नसाई 3963: आयशा कहती हैं कि पैग़म्बर ने उन्हें सीने पर मारा, जिससे बहुत दर्द हुआ।
Sunan an-Nasa’i 3963यानी शक भी हो तो मर्द मार सकता है, पर औरत के पास सिर्फ़ सुलह का विकल्प है।
6.2 पुरुष की प्रधानता (कव्वाम)

कुरान 4:34:
“الرِّجَالُ قَوَّامُونَ عَلَى النِّسَاءِ…”
(“पुरुष औरतों पर कव्वाम हैं।”)
कव्वाम (qawwam) = प्रभारी / हाकिम / शासक
- इब्न कसीर (तफ़्सीर 4:34):
“पुरुष औरतों पर शासक और हाकिम हैं क्योंकि अल्लाह ने पुरुषों को औरतों से अफ़ज़ल बनाया।” - अल-जलालैन:
“कव्वाम का मतलब है मालिकाना हक़ और हुकूमत रखना।” - तफ़्सीर तबररी:
“पुरुष औरतों पर इसलिए कव्वाम हैं कि वे उन्हें अनुशासित करें और ज़रूरत पर उन्हें मार भी सकें।”
यहाँ “कव्वाम” का मतलब सिर्फ़ “जिम्मेदार” नहीं, बल्कि “शासक और मालिक” है।
6.3 नतीजा
- पति अपनी पत्नी को शक पर भी मार सकता है।
- पत्नी के पास कोई अधिकार नहीं, सिर्फ़ “सुलह” या “सहन करना”।
- औरत को अधीनस्थ प्रजा की तरह माना गया, मर्द को शासक की तरह।
6.4 सच का सवाल
अगर बराबरी होती तो—
- औरत भी शक पर पति को मार सकती, या तलाक़ ले सकती।
- मर्दों पर भी पर्दा और पाबंदी होती।
लेकिन सच यह है कि इस्लाम ने मर्द को हाकिम और औरत को ग़ुलाम बना दिया।
भाग 7: औरत = शैतान?

7.1 कुरान का बयान (4:117–119)
कुरान 4:117
إِن يَدْعُونَ مِن دُونِهِ إِلَّا إِنَاثًا ۚ وَإِن يَدْعُونَ إِلَّا شَيْطَانًا مَّرِيدًا
Transliteration: In yadʿūna min dūnihi illā ināthan, wa in yadʿūna illā shayṭānan marīdā.
“वे अल्लाह को छोड़कर पुकारते हैं स्त्रियों (إِنَاثًا / ināthan) को, और वे वास्तव में शैतान को पुकारते हैं।”
अरबी शब्द ināthan = स्त्रियाँ
यानी सीधा मतलब: औरतों को पुकारना = शैतान को पुकारना।
7.2 तफ़सीरों का खेल
- इब्न कसीर, तबररी आदि: यहाँ ināthan को “देवियाँ/मूर्तियाँ (लात, उज़्ज़ा, मनात)” कहकर बचाव किया।
- लेकिन सवाल ये है:
- अगर मूर्तियों के नाम लेने थे तो कुरान 53:19–20 में जैसे नाम सीधे लिखे गए, वैसे यहाँ क्यों नहीं?
- यहाँ सिर्फ़ “स्त्रियाँ” क्यों लिखा?
नतीजा: औरत की छवि = शैतान से जुड़ी।
7.3 हदीसें: औरत = शैतान / फितना
सहीह मुस्लिम (1403a):
“औरत शैतान की तरह आती है और शैतान की तरह जाती है।”
सहीह बुखारी (5096):
“मेरे बाद मर्दों के लिए औरतों से बढ़कर कोई फितना नहीं छोड़ा।”
सहीह मुस्लिम (2740):
“इस दुनिया में औरतों से बढ़कर कोई फितना नहीं है।”
साफ़ है कि औरत को शैतान का चेहरा और पुरुषों के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया गया।
7.4 मातृनाम की समस्या

इस्लाम-पूर्व अरब में कभी-कभी लोग माँ के नाम से पहचाने जाते थे:
- ईसा इब्न मरयम (Jesus son of Mary)
- उम्म जमी़ल (अबू लहब की पत्नी, कुरान 111:4–5)
- हिंद बिन्त उत्बा (अबू सुफ़यान की बीवी)
यानी मातृनाम से पहचान असामान्य नहीं थी। यह बात इस्लाम कि पितृ सत्तात्मक सोच को पसंद नहीं था, इसलिए सूरा निसा कि आयात 117 आई कि परेशानी में स्त्रियों को पुकारना बंद करो, और इसी कारन कुरान ने कहा
कुरान 33:5:
“उन्हें उनके बाप के नाम से पुकारो; यही अल्लाह के नज़दीक न्यायोचित है।”
आदेश: पहचान सिर्फ़ पिता से हो, माँ से नहीं।
7.5 नतीजा
- औरत = शैतान और फितना
- मातृनाम मिटाकर पितृसत्ता थोप दी
- स्त्री की पहचान, सम्मान और स्वतंत्र भूमिका पूरी तरह ख़त्म कर दी गई
7.6 सच का सवाल
अगर औरतें शैतान और फितना नहीं हैं, तो फिर:
- माँ का दर्जा क्यों मिटाया गया?
- मर्दों की नज़र और हवस को क्यों नहीं रोका गया?
असलियत: इस्लाम का पूरा सिस्टम औरत को खतरा और मर्द को हाकिम मानकर बना है।
भाग 8: बहुपत्नी प्रथा — मर्द को हक़, औरत पापिन?

8.1 कुरान का नियम (4:3, 4:24, 23:5–6)
कुरान 4:3:
“जो औरतें तुम्हें अच्छी लगें, उनसे निकाह करो — दो, तीन या चार तक। अगर इंसाफ न कर सको तो एक ही, या फिर अपनी लौंडी।”
मतलब:
- मर्द को चार बीवियाँ रखने की खुली छूट।
- साथ ही लौंडी/यौन दासियाँ भी।
- कोई सीमा नहीं, क्योंकि एक को तलाक देकर पाँचवीं, फिर छठी… करता रह सकता है।
कुरान 4:24, 23:5–6:
मर्द अपनी बीवियों और जिन “मालिकाना हक़ वाली” (लौंडियाँ) हों, उनसे शारीरिक संबंध रख सकते हैं।
8.2 “इंसाफ़” की हकीकत
- आयत कहती है: चार बीवियों के बीच इंसाफ़ करो।
- लेकिन ये “इंसाफ़” केवल खर्च, कपड़ा, खाना, रहने तक सीमित है। आयत में “इंसाफ” की व्याख्या को महिलाओं के सामने बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है, लेकिन भावनात्मक झुकाव पर कोई पाबंदी नहीं। जबकि यहां इंसाफ का अर्थ है — खर्च, समय, रहन-सहन, और व्यवहार में बराबरी। इसलिए गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले मुसलमान की भी चार बीवियां होती हैं, मतलब जो एक बीवी को खिला रहे वही दूसरी को भी खिला सके तो एक वक्त में चार बीवी रख सकते हो।
- भावनात्मक झुकाव (किसे ज्यादा चाहते हो, किसे प्यार करते हो) पर कोई रोक नहीं।
नतीजा: एक मर्द आराम से किसी एक बीवी को प्यार दे सकता है और दूसरी को बस “गुज़ारे के लिए” रख सकता है।

8.3 औरत की हालत
- अगर पत्नी माँ न बन पाए → मर्द दूसरा निकाह कर सकता है।
- लेकिन अगर मर्द ही नाकाम हो → औरत को कोई हक़ नहीं।
- उसकी ज़िंदगी “अधूरी” कहकर दबा दी जाती है।
इस्लाम का ये नियम औरत को सिर्फ़ संतान पैदा करने की मशीन मान लेता है।
8.4 सवाल
- मर्द को चार बीवियाँ + लौंडियाँ + जन्नत में हूरें…
- औरत को?
- न यहाँ बराबरी
- न जन्नत में कोई इनाम
आखिर क्यों औरत को ही पापिन, गुनहगार और कमतर ठहराया गया?
भाग 9: नर्क की आग — औरतों का ठिकाना?

9.1 हदीसों का बयान
सहीह बुखारी 1052; सहीह मुस्लिम 907
“मैंने नर्क में देखा कि अधिकतर औरतें थीं।”
सहीह मुस्लिम 79
ज्यादातर महिलाये नर्क जाएंगी क्युकी वो धर्म निभाने में कमजोर और पति कि नाफ़रमान होती हैं।
सहीह बुखारी 304
“औरतें बुद्धि और धर्म में कम हैं।”
कारण बताए:
- पति की नाफ़रमानी,
- एहसान न मानना।
- धर्म में कम
9.2 नतीजा
- औरत को पाप का स्रोत, बुद्धि में कमी और नर्क की स्थायी सदस्य घोषित कर दिया गया।
- यानी दुनिया में गुलामी + आखिरत (आख़िरत) में सज़ा।
यानी “नर्क” की सबसे बड़ी वजह भी औरत की आज़ादी या सवाल उठाना बना दिया गया।
9.3 सच का सवाल
- अगर मर्द चार बीवियों, गुलाम और हूरों का मज़ा ले → कोई सवाल नहीं।
- लेकिन औरत थोड़ी नाफ़रमानी करे → सीधा नर्क?
ये बराबरी नहीं, बल्कि औरत को हमेशा गुनहगार और अधम मानने का सिस्टम है।
भाग 10: औरत — शासक? कभी नहीं!

10.1 हदीस: शासक बनी तो बर्बादी
सहीह बुखारी 4425; 7099
“वह कौम कभी सफल नहीं होगी जिसने औरत को अपना शासक बनाया।”
मतलब:
- अगर औरत हुकूमत करेगी तो पूरी कौम बर्बाद।
- इस आधार पर औरत को राजनीतिक नेतृत्व से स्थायी रूप से बाहर कर दिया गया।

10.2 इमामत और नमाज़ में नेतृत्व
सहीह मुस्लिम 511, सहीह बुखारी 514
“कुत्ता, गधा और औरत सामने से गुज़र जाएँ तो नमाज़ टूट जाती है।”
औरत का दर्जा गधे और कुत्ते के बराबर ठहराया गया।
और इस नियम ने औरत की इमामत (पुरुषों को नमाज़ पढ़ाना) हराम घोषित।
10.3 नतीजा
- औरत न तो शासक बन सकती है,
- न धार्मिक नेतृत्व (इमाम, मुफ़्ती, खलीफा) पा सकती है।
- मुस्लिम समाज का पूरा शक्ति ढाँचा → पुरुष-प्रधान और पितृसत्तात्मक।
भाग 11: औरत की गवाही — आधी इंसान

कुरान 2:282
“अगर दो मर्द न हों, तो एक मर्द और दो औरतें, ताकि अगर एक भूल जाए तो दूसरी याद दिला दे।”
सहीह बुखारी 304
“औरतें बुद्धि और धर्म में कम हैं।”
गवाही में औरत = आधी इंसान।
औरत की बुद्धि और स्मृति पर स्थायी शक।
भाग 12:: विरासत में भी आधी

कुरान 4:11
“बेटे का हिस्सा दो बेटियों के बराबर है।”
बेटा = दोगुना
बेटी = आधा
कुल मिलाकर :
- शासन? मना।
- इमामत? हराम।
- गवाही? आधी।
- विरासत? आधी।
- नर्क? ज्यादातर औरतें।
यानी इस्लामी व्यवस्था औरत को हर मोर्चे पर अधम, अधूरा और गुनहगार ठहराती है।
भाग 13: जन्नत = मर्दों के लिए हूरें (कुरान 44:54, 52:20, 56:22)

“उनके लिए बड़ी आँखों वाली हूरें होंगी।”【कुरान 56:22】
कुरान और हदीसों में जन्नत का वर्णन पुरुषों की इच्छाओं पर केंद्रित है।
- जन्नत को पुरुषों के लिए यौन-सुख और हूरों का वादा कर के सजाया गया है।
- मर्दों को बड़ी आँखों वाली हूरें, हमेशा कुंवारी और आज्ञाकारी औरतें दी जाएँगी।
- औरतों के लिए जन्नत में ऐसा कोई समकक्ष इनाम नहीं बताया गया।
इसका अर्थ साफ़ है—जन्नत भी पुरुष-केन्द्रित कल्पना है, जहाँ महिला का स्थान केवल वस्तु और पुरुष की काम-तृप्ति का साधन है।
निष्कर्ष — सच जो छुपाया गया

मौलवी और आलिम यह कह कर बच निकलते हैं कि “ये सब उस जमाने की बात थी।”
लेकिन कुरान खुद कहता है कि यह शाश्वत (हमेशा के लिए) है, इसे कोई बदल नहीं सकता (33:40, 15:9)।
तो फिर सवाल यह है—अगर ये हमेशा के लिए है, तो “पुराने जमाने” का बहाना क्यों?
स्पष्ट है:
- चार गवाह न ला सकने पर बलात्कार पीड़िता ही दोषी,
- खुला के लिए औरत को पैसे देकर तलाक खरीदना,
- हलाला की मजबूरी और बेइज्जती,
- 6 साल की बच्ची की शादी,
- पति की आज्ञा न मानने पर मार का हक़,
- पर्दे और गुलामी का बोझ…
ये सब सीधे कुरान-हदीस से हैं, और यही असली सच्चाई है।
सम्मान और अधिकार का दावा महज़ प्रोपेगैंडा है।
आज मुस्लिम औरतों को जो भी आज़ादी या अधिकार दिखते हैं, वे इस्लाम से नहीं बल्कि सेक्युलर दुनिया और संविधान से आए हैं।
सवाल जो कचोटते हैं

- चार गवाह न ला सकीं, तो बलात्कार तुम्हारी गलती कैसे?
- खुला में अपनी आज़ादी क्यों खरीदनी पड़े?
- हलाला में पति बदलने की शर्त तुम्हारी इज्ज़त कैसे?
- 6 साल की बच्ची की शादी—उसकी मर्जी कहाँ?
- पति की हर बात मानो, मार खाओ—क्या तुम इंसान नहीं?
- कुरान हमेशा के लिए है, तो “पुराने जमाने” का बहाना क्यों?
- मर्द को चार बीवियाँ, गुलाम और हूरें—और तुम्हें न दुनिया में बराबरी, न जन्नत में इनाम—क्या यही न्याय है?
इस्लाम में औरत की स्थिति (ग्रंथों के आधार पर):
- शक़ पर भी मार खाने योग्य (4:34)
- शैतान-रूप (4:117)
- खेती, यानी उपभोग की वस्तु (2:223)
- तलाक़ और हलाला में खरीदी-बेची जाने वाली चीज़
- गवाही और विरासत में आधी (2:282, 4:11)
- शासक और धार्मिक नेतृत्व से वंचित
- नर्क की मुख्य बाशिंदा घोषित (बुखारी 1052, मुस्लिम 79)
स्पष्ट है कि कुरान और हदीस दोनों औरत की गरिमा, समानता और स्वतंत्रता को अस्वीकार करते हैं।
महिला अधिकार का जो दावा किया जाता है, वह इस्लामी ग्रंथों से नहीं, बल्कि आधुनिक दुनिया से आया है।
“अगर औरत को आधी इंसान, गवाही में कम, नर्क की आग, और मर्द की खेती बना दिया जाए, तो यह सम्मान नहीं बल्कि व्यवस्थित गुलामी है।”
“यह लेख किसी मज़हब या समुदाय को बदनाम करने के लिए नहीं लिखा गया है। इसमें उठाए गए प्रश्न मेरे अपने मन में उठे विचार हैं। मैं केवल यह समझना चाहता हूँ कि आखिर क्यों शरीयत को संविधान और आधुनिक मूल्यों से ऊपर माना जाता है? क्या ऐसा होना उचित है? यह सवाल केवल आलोचना नहीं, बल्कि सच्चाई को जानने की एक कोशिश है। यदि आप असहमत हैं तो मेरे प्रश्नों का उत्तर देकर मुझे समझाएँ, क्योंकि मेरा उद्देश्य बहस नहीं, बल्कि सत्य की खोज है।”
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संदर्भ सूची (References):
- Qur’an: 2:223, 2:229–230, 2:282, 4:11, 4:34, 4:117–119, 24:4, 65:1
- Tafsir al-Tabari, Tafsir Ibn Kathir, Jami al-Tirmidhi
- Sahih al-Bukhari: Hadith 1052, 4425, Book 65, Hadith 89
- Sahih Muslim: Hadith 79, 907, 1492, 3491

संदर्भ सूची (References):