
इजरायल और फिलिस्तीन का विवाद दशकों से चल रहा है, लेकिन इसकी जड़ें इतिहास, धर्म, और इस्लाम की दोहरी नीति में छुपी हैं। एक तरफ मुसलमान अल्लाह की किताब कुरान का हवाला देते हैं, दूसरी तरफ उसी किताब के वादों को नकारते हैं। एक तरफ वे मस्जिद अल-अक्सा को इस्लाम का पवित्र स्थल बताते हैं, दूसरी तरफ इतिहास बताता है कि ये जगह मुहम्मद के समय मस्जिद थी ही नहीं। आइए इस विवाद की सच्चाई को परत-दर-परत खोलें और देखें कि क्या मुसलमान अपने ही अल्लाह के खिलाफ लड़ रहे हैं?
1. कुरान में इजरायल का हक, फिलिस्तीन का नामोनिशान नहीं
कुरान में “बनी इसराइल” (इजरायल की संतान) का जिक्र कम से कम 17 बार आता है (सूरह 2:40, 2:47, 5:21, 7:137, आदि)। सूरह 5:21 में अल्लाह मूसा से कहता है, “ऐ मेरी कौम! उस पवित्र भूमि में प्रवेश करो जो अल्लाह ने तुम्हारे लिए लिख दी है।” यह “पवित्र भूमि” यहूदियों की थी, जिसे तोरा (ड्यूटरोनॉमी 1:8) और बाइबल में “प्रॉमिस्ड लैंड” कहा गया। लेकिन कुरान में “फिलिस्तीन” शब्द एक बार भी नहीं आता। क्यों? क्योंकि उस समय “फिलिस्तीन” नाम का कोई क्षेत्र या देश था ही नहीं।
“फिलिस्तीन” शब्द की उत्पत्ति हिब्रू के “प्लेशेत” (Peleshet) से हुई, जो ओल्ड टेस्टामेंट (एक्सोडस 15:14) में क्रेते द्वीप से आए समुद्री लुटेरों “फिलिस्तीनियों” (Philistines) के लिए इस्तेमाल हुआ। रोमन सम्राट हेड्रियन ने 135 CE में यहूदियों के बार कोखबा विद्रोह को कुचलने के बाद यहूदिया का नाम बदलकर “सीरिया पालेस्तिना” कर दिया। इतिहासकार बर्नार्ड लुईस बताते हैं कि यह नाम यहूदियों को अपमानित करने के लिए दिया गया, ताकि उन्हें लगे कि लुटेरे उनकी जमीन पर राज कर रहे हैं। मध्ययुग तक “फिलिस्तीन” एक भौगोलिक क्षेत्र के रूप में भी मुश्किल से इस्तेमाल हुआ। अरब विजय के बाद इसे “जुंड फिलिस्तीन” कहा गया, लेकिन यह यहूदियों की जमीन को ही संदर्भित करता था, न कि किसी अलग “फिलिस्तीनी” कौम को। तो सवाल यह है—जब कुरान में फिलिस्तीन का जिक्र तक नहीं, तो मुसलमान किस हक के लिए लड़ रहे हैं?
क्या यहूदी, यहूदा (Yehuda) की क़ौम हैं, और क्या कुरान और अन्य इस्लामी ग्रंथ इस बात की पुष्टि करते हैं कि नबूवत और किताब इस्हाक (Isaac) की नस्ल को मिली — विशेषकर याक़ूब (इस्राईल), और उनके बेटे जिनमें यहूदा (Judah) भी शामिल था, जिन्हें “बनी इस्राईल” कहा गया?
2. कुरान 29:27 — नबूवत और किताब इस्हाक को दी गई
Qur’an 29:27
“And We bestowed upon him (Abraham) Isaac and Jacob, and We established the prophethood and the Scripture among his descendants…”
(وَوَهَبْنَا لَهُ إِسْحَٰقَ وَيَعْقُوبَ وَجَعَلْنَا فِي ذُرِّيَّتِهِ ٱلنُّبُوَّةَ وَٱلْكِتَٰبَ…)
➤ यह आयत स्पष्ट रूप से कहती है कि नबूवत और किताब इब्राहीम की औलाद में रखी गई, और उसमें इस्हाक और याक़ूब (इस्राईल) का नाम लिया गया है।
3. “बनी इस्राईल” कौन हैं?
“बनी इस्राईल” का मतलब होता है “इस्राईल की संतान”।
इस्राईल = याकूब (Jacob) का दूसरा नाम है।
बाइबिल (Genesis 32:28) में वर्णन आता है कि याक़ूब ने एक रात एक दिव्य व्यक्तित्व — जिसे “ख़ुदा का फ़रिश्ता” कहा गया — के साथ कुश्ती की। यह संघर्ष पूरी रात चला और अंततः याक़ूब विजयी हुआ।
तब उससे कहा गया:
“तेरा नाम अब याक़ूब नहीं रहेगा, बल्कि इस्राइल होगा, क्योंकि तूने ख़ुदा से लड़ाई की और जीत गया।”
यहीं से याक़ूब का नया नाम “इस्राइल” पड़ा। इस्राइल (יִשְׂרָאֵל / Yisra’el) का शाब्दिक अर्थ है — “जो ख़ुदा से जूझा और जीत गया।”
बाद में याक़ूब (इस्राइल) के 12 पुत्र हुए और उन्हीं से बनी-इस्राइल (Children of Israel) की 12 क़बीले बने। इस प्रकार “इस्राइल” केवल एक व्यक्ति का नाम नहीं रहा बल्कि उनकी पूरी संतान और क़ौम का सामूहिक नाम बन गया।
➤ कुरान 2:40, 2:47, 5:12, 7:137 आदि में “या बनी इस्राईल” के नाम से बार-बार पुकारा गया है — यानि याकूब की संतानों को, जिनमें यहूदा, लेवी, यूसुफ, बिनयामीन, दान आदि 12 बेटे शामिल हैं।
4. यहूदी (Jews) = यहूदा (Judah) की संतान
Old Testament (Genesis 29:35 & Genesis 49:8–10)
यहूदा, याकूब (इस्राईल) का चौथा बेटा था। बाद में दक्षिणी इस्राईली राज्य “यहूदा” (Kingdom of Judah) के नाम पर वहां के निवासी “यहूदी” (Jews) कहे जाने लगे।
कुरान खुद यहूदियों के लिए “यहूद” शब्द का प्रयोग करता है —
➤ Surah Al-Baqarah 2:62 — “इनَّ الَّذِينَ آمَنُوا وَالَّذِينَ هَادُوا”
➤ यानि — जो मुसलमान हुए और जो यहूदी (हादू) हुए…
इससे यह स्पष्ट है कि कुरान भी यहूदियों को एक नस्लीय/धार्मिक समूह के रूप में मानता है जिनका संबंध बनी इस्राईल और याकूब की संतानों से है।
5. यहूदा का वंश = यहूदी = किताब और नबूवत के उत्तराधिकारी
- याकूब के बेटे:
- रूबेन (Reuben)
- शमौन (Simeon)
- लेवी (Levi)
- यहूदा (Judah)
- यिशकार
- ज़बुलुन
- दान
- नफ्ताली
- गाद
- आशेर
- यूसुफ
- बिन्यामीन
यहूदा की नस्ल से दावूद (David), सुलेमान (Solomon) और अन्य नबी हुए — जो यह दर्शाता है कि किताब और नबूवत वास्तव में यहूदा की संतानों में भी आई।
6. मस्जिद अल-अक्सा: इस्लाम से कोई लेना-देना नहीं
मुसलमान मस्जिद अल-अक्सा को इस्लाम का तीसरा सबसे पवित्र स्थल मानते हैं। कुरान 17:1 में “मस्जिद अल-अक्सा” (दूर की मस्जिद) का जिक्र है, जहां मुहम्मद रात में “मेराज” के लिए गए। लेकिन सच क्या है?
- तथ्य 1: मुहम्मद की मृत्यु 632 CE में हुई। उस समय “मस्जिद अल-अक्सा” नाम की कोई इमारत नहीं थी। टेंपल माउंट पर दूसरा यहूदी मंदिर 70 CE में रोमनों ने नष्ट कर दिया था। वहां सिर्फ खंडहर बचे थे। इतिहासकार ह्यू केनेडी बताते हैं कि “अल-अक्सा” मस्जिद की नींव 685 CE में खलीफा अब्दुल मलिक ने रखी और यह 705-715 CE में पूरी हुई—मुहम्मद के मरने के 70 साल बाद। तो मेराज में वे कौन सी “मस्जिद” गए?
- तथ्य 2: मेराज की कहानी में मुहम्मद एक पंख वाले गधे (बुराक) पर सवार होकर गए और उसे मस्जिद के दरवाजे पर बांधा। यह बात हदीस में दर्ज है (सही बुखारी, हदीस 3207)। लेकिन जब 70 CE में टेंपल माउंट नष्ट हो चुका था और वहां सिर्फ खंडहर थे, तो दरवाजा कहां से आया? यह सवाल इस कहानी की सत्यता पर गंभीर सवाल उठाता है।
- तथ्य 3: कुछ इस्लामिक विद्वान, जैसे इब्न हिशाम, कहते हैं कि “अल-अक्सा” से तात्पर्य कोई भौतिक मस्जिद नहीं, बल्कि एक प्रतीकात्मक जगह थी। लेकिन बाद में खलीफाओं ने इसे टेंपल माउंट से जोड़कर इस्लामी दावा ठोक दिया। कुछ मौलवी दावा करते हैं कि सुलेमान का मंदिर ही “अल-अक्सा” था। लेकिन कुरान 34:13 में सुलेमान के मंदिर में “तमासिल” (मूर्तियों) का जिक्र है। बाइबल में भी सोलोमन द्वारा चेरुबिम (मूर्तियां) बनाने का जिक्र है (1 किंग्स 6:23-28), जिसे कुरान नकार नहीं सका, इसलिए उसने तमासिल होने की बात कही। इस्लाम में मूर्तियां हराम हैं। हदीस Jami’ at-Tirmidhi 2806 (Book 43, Hadith 79 ) में जिब्राइल मुहम्मद से कहता है, “अपने घर से मूर्तियां हटाओ, तब मैं आऊंगा।” Sahih Muslim 2104 (Book 37, Hadith 2106) , Sunan Abi Dawud 4158 भी देखें
तो अगर वहां मूर्तियां थीं, तो यह अल-अक्सा वाकई मस्जिद नहीं हो सकती थी। यह साफ है कि यह बाद में गढ़ी गई कहानी मात्र है।
7. टेंपल माउंट पर कब्जा: यहूदियों को अपमानित करने की रणनीति
दूसरे खलीफा उमर ने 638 CE में यरुशलम पर कब्जा किया और टेंपल माउंट पर मस्जिद बनवाई। बाद में डोम ऑफ द रॉक और अल-अक्सा मस्जिद बनी। यह जगह यहूदियों का सबसे पवित्र स्थल थी। इसे चुनना संयोग नहीं था। इतिहासकार मार्टिन गिल्बर्ट लिखते हैं कि इस्लामी विजय में मंदिरों को मस्जिद में बदलना आम था—जैसे भारत में अयोध्या का बाबरी ढांचा या स्पेन में कॉर्डोबा का चर्च-मस्जिद। टेंपल माउंट पर मस्जिद बनाना भी उसी रणनीति का हिस्सा था, ताकि यहूदी मंदिर मस्जिद के पैरों तले रहे।
आज भी वेस्टर्न वॉल (यहूदियों की “वेलिंग वॉल”) अल-अक्सा के ठीक नीचे है। हर साल लाखों यहूदी वहां प्रार्थना करते हैं, लेकिन मुस्लिम प्रबंधन उन्हें रोकने की कोशिश करता है। यह अपमान आज भी जारी है। अगर टेंपल माउंट ही अल-अक्सा था, तो मुसलमानों ने इसे रिबिल्ड क्यों नहीं किया? अलग से मस्जिद क्यों बनाई?
8. बंटवारा: हिंदुओं ने माना, मुसलमानों ने ठुकराया
1947 में भारत का बंटवारा हुआ। हिंदुओं ने इसे स्वीकार किया, भले ही लाखों मारे गए। उसी साल संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव 181 के तहत इजरायल और फिलिस्तीन का बंटवारा प्रस्तावित हुआ। यहूदियों ने इसे माना, लेकिन अरब देशों और मुसलमानों ने ठुकरा दिया। नतीजा? 1948 में इजरायल की स्थापना के अगले ही दिन पांच अरब देशों (मिस्र, जॉर्डन, सीरिया, लेबनान, इराक) ने उस पर हमला कर दिया। इतिहासकार बेनी मॉरिस की किताब “1948: A History of the First Arab-Israeli War” बताती है कि अरब लीग ने बंटवारे को “यहूदियों की साजिश” कहकर खारिज किया।
अगर मुसलमान बंटवारे को मान लेते, तो आज न गाजा का संकट होता, न वेस्ट बैंक का विवाद। लेकिन इस्लामिक इतिहास में “दारुल इस्लाम” (जो एक बार मुस्लिम हो जाए) को कभी नहीं छोड़ने की परंपरा रही है। स्पेन से लेकर भारत तक, मुस्लिम शासकों ने हारी हुई जमीन को वापस लेने की कोशिश की। इजरायल के साथ भी यही हुआ। सवाल यह है—जब भारत में मुसलमानों ने बंटवारा मांगा और पाकिस्तान लिया, तो इजरायल को उसका हिस्सा देना क्यों गलत ठहराया?
9. इस्लाम का दोहरा चरित्र: लेना जानता है, देना नहीं
मुसलमानों ने 7वीं से 13वीं सदी तक स्पेन, भारत, और बाल्कन तक कब्जा किया। लेकिन जब यहूदी अपनी जमीन पर लौटे, तो इसे “कब्जा” कहा गया। कुरान 5:21 में अल्लाह ने यहूदियों को वह जमीन दी, फिर भी मुसलमान इसे नकारते हैं। इस्लामी विद्वानों की चालाकी देखिए—आज अगर आप कुरान की किताब या ऑनलाइन इस 5:21 की आयत देखेंगे, तो उसमें इन्होंने चालाकी से कोष्ठक में “फिलिस्तीन” शब्द डाल दिया है, जबकि इस आयत में अरबी में “फिलिस्तीन” शब्द नहीं है। मतलब, अपना दावा जताने के लिए इन्होंने अल्लाह के कलाम में अपने शब्द गढ़ दिए हैं।
1967 के छह-दिवसीय युद्ध में इजरायल ने गाजा, वेस्ट बैंक, और पूर्वी यरुशलम जीता। इसके बाद भी इजरायल ने कई बार शांति प्रस्ताव दिए (1978 कैंप डेविड, 2000 ओस्लो), लेकिन फिलिस्तीनी नेतृत्व (PLO, हमास) ने ठुकरा दिया। हमास का चार्टर (1988) साफ कहता है, “इजरायल को मिटाना हमारा लक्ष्य है।” इससे साफ हो जाता है कि शांति कभी उनकी मंशा नहीं हो सकती, जब तक कि उनका मुख्य लक्ष्य नहीं बदलता।
10. बच्चों की मौत का ढोंग: हमास और मुहम्मद का सच
7 अक्टूबर 2023 को हमास ने इजरायल पर हमला किया, जिसमें 1,200 लोग मारे गए और 250 को बंधक बनाया गया (स्रोत: इजरायल डिफेंस फोर्स)। जवाबी हमलों में गाजा में बच्चे मरे, जिस पर दुनिया रो रही है। लेकिन क्या हमास की जिम्मेदारी नहीं? हदीस (सही मुस्लिम 1745b) में मुहम्मद कहते हैं, “रात के हमलों में औरतें-बच्चे मरते हैं, तो क्या? वे उनमें (काफिरों) से हैं।” अगर तलवारों के जमाने में यह जायज था, तो आज बमों से अनजाने में हुई मौतों पर सिर्फ इजरायल को क्यों कोसा जाए?
हमास गाजा में नागरिकों के बीच से रॉकेट दागता है (स्रोत: UN वॉच रिपोर्ट, 2023), ताकि जवाबी हमले में बच्चे मरें और इजरायल बदनाम हो। यह रणनीति नई नहीं—636 CE में यरमूक की लड़ाई में भी अरब सेनाओं ने नागरिकों को ढाल बनाया था। भारत में होने वाले प्रदर्शनों और पत्थरबाजी में भी बच्चों और औरतों को आगे रखा जाता है, ताकि रिटेलिएशन में उन्हें चोट लगे तो विक्टिम कार्ड खेला जा सके। तो बच्चों की मौत का ढोंग करने वाले हमास को क्यों नहीं कोसते?
11. यहूदियों का दर्द और उनकी जमीन का हक
यहूदियों ने 2,000 साल तक निर्वासन, नरसंहार (होलोकॉस्ट में 60 लाख मरे), और अपमान सहे। फिर भी, उन्होंने सिर्फ वही जमीन ली जो तोरा (ड्यूटरोनॉमी 1:8), बाइबल, और कुरान (5:21) में उनकी बताई गई। उन्होंने कभी मक्का या बगदाद पर दावा नहीं ठोका। 1948 में इजरायल की स्थापना के बाद भी वे बंटवारे से खुश थे, लेकिन मुसलमानों ने इसे स्वीकार नहीं किया। अगर भारत मुस्लिम देश होता और हिंदू बंटवारा मांगते, तो उनका कत्ल हो जाता—इतिहास इसका गवाह है। जहां इस्लाम आया, वहां की जड़ें कभी वापस नहीं लौटीं। लेकिन यहूदी अपनी जड़ों को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। क्या यह अन्याय नहीं?
निष्कर्ष: मुसलमान अपने ही अल्लाह के खिलाफ क्यों?
इजरायल-फिलिस्तीन विवाद की जड़ में न जमीन है, न शांति की चाह। यह इस्लाम की उस सोच का नतीजा है जो अपनी किताब के वादे (कुरान 5:21) को भी नकारती है और एक ऐसी मस्जिद (अल-अक्सा) के लिए लड़ती है जो मुहम्मद के समय थी ही नहीं। यहूदी सिर्फ अपने हक की लड़ाई लड़ रहे हैं, जबकि मुसलमान उस हक को भी छीनना चाहते हैं जो अल्लाह ने उन्हें दिया।
आखिरी सवाल: अगर कुरान, जो अल्लाह का कलाम है, में अल्लाह ने यहूदियों की जमीन का हक साफ किया है, तो मुसलमान अपने ही अल्लाह के खिलाफ क्यों लड़ रहे हैं?
